गंगा प्रसाद अरुण के दू गो गजल

(1)

छलकत तलफत नजर, त बरबस गजल भइल.
लहसल लहकत दहर, त बरबस गजल भइल.

अद बद पनघट पर जब परबत पसर गइल,
सइ-सइ लहरल लहर, त बरबस गजल भइल.

चटकल दरपन चमकल दहक-सहक बन-बन,
समय गइल जब ठहर, त बरबस गजल भइल.

अलकन पर, मद भरल नयन, मनहर तन पर,
बहकल-सहकल उमर, त बरबस गजल भइल.

अजगर अइसन उर पर दरद बनल बइठल.
पसरल मनगर मगर, त बरबस गजल भइल.

सरबस अरपन रसगर अनबन पर हरदम,
लउकल फरकत ‘बहर’, त बरबस गजल भइल.

(2)

पतझर के मारल बन, कचनार भइल होई.
कुछ अइसन फागुन के, दरबार भइल होई.

अमराई मोजर से, मधु रस टपकत होई,
टुसिआइल बर-पाकड़, छतनार भइल होई.

कोइलि के कू-कू से, भँवरा के गुन-गुन ले,
कुल विरह मिलन रसगर, पवनार भइल होई.

जवना राहे जाईं, लाले पीअर हरिअर,
रंग बीसी-तीसी के, टहकार भइल होई.

झुलुहा पर यादन के, अझुरा आवाजाही,
जइसे कि सतमेझरा, सरकार भइल होई.

कुछ काग बँड़ेरी पर, भोरे उचरत होई,
असराइल टूटल मन, बरिआर भइल होई.

सतरंगा मौसम में, निमना से आँख पढ़ी,
धनिया अब होरी के, अखबार भइल होई.


संपर्क :
0923487204

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2 thoughts on “गंगा प्रसाद अरुण के दू गो गजल”
  1. मजा आ गइल ,बहुत सुनर बिहंसत आ लहसत गजल……..

कुछ त कहीं......

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