– अशोक द्विवेदी

DrAshokDvivedi

ना जुड़वावे नीर
जुड़-छँहियो में, बहुत उमस लागे.
चैन लगे बेचैन, देश में
बरिसत रस नीरस लागे!

बुधि, बल, बेंवत, चाकर…
पद, सुख, सुविधा, धन, पदवी के
लाज, लजाले खुदे
देखि निरलज्ज करम हमनी के
बुढ़वा भइल ‘सुराज’
नया बदलावो जस के तस लागे
चैन लगे बेचैन, देश में
बरिसत रस नीरस लागे!

झूठा ढकचे साँच
घघोटत
जाबि सभे के,
अस फँउके
पहिरल, लगे उघार,
उघारल देह
पहिरला अस लउके
बहुते बढ़ल समाज, आज
जगलो, भँउवइला अस लागे!
चैन लगे बेचैन, देश में
बरिसत रस नीरस लागे!

एक भाव सब, ऊजर करिया
नकल, असल एकतार लगे
एक बरोबर, करत छोट-बड़
अन्हरो अउर दिठार लगे.
देखि, खटाइल मन अतना, कि
मीठो, खटतूरस लागे!
चैन लगे बेचैन, देश में
बरिसत रस नीरस लागे!

रुचिकर, लगे अरुचिकर काहे
फूहर, साफ-सुघर लागे
उचटे नीन, बरे ना अनकुस,
मिसिरी-बोल जहर लागे
लागे हँसी, रोवाई लेखा…
मन, अनमन, बेबस लागे!
चैन लगे बेचैन, देश में
बरिसत रस नीरस लागे!

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कुछ त कहीं......

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