DrAshokDvivedi
गँवई लोक में पलल-बढ़ल अगर तनिको संवेदनशील होई आ हृदय -संबाद के मरम बूझे वाला होई, त अपना लोक के स्वर का आत्मीय हिरऊ -भाव के समझ लेई. आज अपना गँवई काकी का मुँहें एगो जानल-सुनल पुरान गीत सुनत खा हम एगो दोसरे लोक में पहुँच गउंवीं, हमार आँखि भींजि गउवे आ हम भितरे तड़फड़ाए लगुवीं. काकी का चलि गइला का बादो ओह गीत का भाव-लय के गूँज-अनुगूँज हमरा भीतर बनल रहुवे आ हम कसमसात रहुवीं. बेटी क बाप भइला आ ओके बियहला-दान कइला का बाद जवन अनुभव-बोध हमके भइल बा; ऊ जइसे छछाते परतच्छ हो उठुवे. ई सगरी बिकलता ओह वाचिक-संबादे से भइल रहुवे, जवना क माध्यम काकी के सुनवलका गीत रहुवे.

वाचिक संबाद खाली बोलले-बतियवला से ना होला, चेहरा के भाव-भंगिमा, उतार-चढ़ाव आ क्रिया-व्यवहारो से प्रगट होला. मुँह बिजुकावल, मुँह बनावल भा मुँह फेरल, आँख मटकावल, तरेरल आ मटकियावल जइसन शब्द एही मूक-गहिर संबाद खातिर बनल होई. दरअसल सँग-सँग रहत दिन मास बरिस बीतेला त लोग एक दुसरा का देह के भाषा, ओकरा चाल ढाल आ भंगिमा से परिचित होला आ फेर बे बतवले, कहले ओकरा भाव के बूझि लेला भा कयास लगा लेला. आपुसी संग -साथ में पनपल ईहे मौन -बतकही भा संबाद गँवई लोक के परस्पर जोरले-बन्हले रहे. सँग सँग हँसत-रोवत, गावत-बजावत, लड़त-झगरत, काम-धंधा करत ई हृदय-संबाद लोककथा भा लोकगीतन के मरम बूझे में मदद करत रहे. आगा चल के, ई तरक्की के लालसा शहरी भाग-दउर आ पइसा कमइला के चाह-छाँह आ हिरिस मे खतमे होत चलि गइल. अब गीतिया त बा बाकिर ओकरा भाव-भूमि प लोग उतरते नइखे. अब का लड़िकन के दादा-दादी, ईया-फूआ वाला गँवई लोक से जोरलो कठिन बा. साइत-संजोग मिलतो बा त ऊ ओह सांस्कृतिक-चेतना का आत्मीयता से कहाँ जुड़ पावत बा ? अब महानगर का इस्कूलन में पढ़े आ ब्यस्त-बाझल मम्मी-डैडी का कलजुगिया संस्कार वाला लइकन के फेड़ पौधा, फसल आ साग सब्जी का उपराजन से कवनो लगावे-छुआव नइखे. नाता रिश्ता के मामूली पहिचान त बा बाकिर ऊ आत्मीय -भाव आ संवेदन के छुवाइये नइखे. हिया का मौन संबाद के अनुभूति-प्रतीति कहाँ से होई ? ऊ ग्रहणशीलता आ भावभूमि के स्तर जवन लोक-स्वर के मरम बूझे आ ओमे डूबि के मन का ओह हूक हुलास आ पीर-कसक के पकड़े; ऊ त लोक में रचले-बसले नू होई.

लोक से कटत लोग, ओकरा भाषा आ भावभूमियो से कटल जा रहल बा. लोक के स्वर जवना लोकगीतन में संचित बा ओकरा संरक्षन आ बटोरला क बात होता, कतना लोग ओके बटोर सइहार के किताब आ सीडी बनावत बा, बाकि ओकर होई का ? हमहन क अगिली पीढ़ी ओके कतना महत्व दीही, ई सवाल बेचैन करत बा. एह गीतन के सुन के भाव विभोर आ विकल होखे वाली हमहन क पीढी ना रही तब? पुत्र कामना खातिर आ कामना फलित भइला का बाद गवाये वाला सोहर होखे भा सगुन क संझा-पराती, बियाह क गीत होखे भा ‘चिरई’ बनल बेटी क गीत “नीबिया क फेड़ जनि कटवइहऽ मोरे बाबा हो, नीमिया चिरइया क बसेर ..” में छिपल मरमभेदी अनुरोध; लोक-स्वर के अनुभव-संसार आ संबेदन-पीर का भाव भूमि पर उतरल आसान ना होई. ना “दूध क नेकी”आ मोल माँगे वाला गीत के अन्तर्वेदना अनुभव होई ना जँतसारी के श्रम सीकर से भींजल बिरह-वेदना आ जीवन-संघर्ष के ब्यथा क साछात्कार. बेटी त नीम का चिरई अस बसेर क के दुसरा देश, दुसरा घरे चल जाई आ “दूध क नेकी” क जिम्मा भाई पर डाल जाई, भितरी से कतनो अहकी-डहकी बाकि बाबू जी के समझावत जाई कि बाबा, माई के खेयाल रखिहऽ ! आ बेटा, ऊहो एक दिन “गौरी बियाहन” निकली त नया संबंध का उल्लास आभास में ओह “अनमोल” दूध के मोल भुला जाई. कुछ दिन बितते बियहुती सँग रोजी-रोजिगार में लाग जाई भा नोकरी पर परदेस चल जाई. माई-बाबू अकेल रहि जइहें, बेटी क कहलका इयाद करत ..”सून होइहें अँगना -दुआर !” जीवन-चक्र आ संस्कारन वाला भाव संबाद क हिया से अनुभूति प्रतीति आवे वाली पीढ़ी के कहाँ से होई ? लड़िकइँयें से कारटून आ मूवी देखे वाला लइका-लइकी, “सास बहू और वो” देख के सयान होत बाड़े सऽ. सन्डे के महतारी बाप सँगे “माल”,”बिग मार्केट” में शापिंग-मनोरंजन. अपना लोक स्वर वाली भाषा संस्कृति से कतना दूर.

धीरहीं धीरे, बाकि तेजी से ओरात पुरनका भाव-सुभाव, आत्मीयता आ पारस्परिकता नयकी पीढ़ी के, अपना लोक संस्कृति, संस्कारन आ भाषा-भाव से बिलग कइले जा तिया. कुछ लोग जे तनी मनी सटल-डटल बा, ओह सब में हिया के मौन संबाद के आत्मीयता क ऊ बहत रहे वाली चेतन लहर नइखे. का गाँव जवार के नवकी पीढ़ी, का आपन गँवई लोक छोड़ के परदेस जाये वाला शहरी माई-बाप ! का ओह लोगन क ई जिमवारी नइखे कि कि अपना माई-बाप आ बाबा-आजी वाला अपना मूल (ओरिजिन) से अपना सन्तानो के जोड़ो ? का नया पीढ़ी के अपना मूल से, अपना लोक आ भाषा-संस्कृति आ संघर्ष-गाथा के जाने-समझे के अधिकार नइखे ? का ऊ अपना मूल आ ओसे जुड़ल पहिचान से व॔चित रहिहें स ऽ? सोचीं सभे, जल्दी सोचीं ..कहीं देर मत हो जाव !!

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By Editor

One thought on “अपना मूल के जनला समझला के माने”
  1. साँचे कहनी… समय बदल गइल बा.. लोग साँझ पराती के गीत भुला गइल.. ढेंकी-जाँता के गीत बिलम गइल. रीति रिवाज संस्कार से नयका पीढ़ी भाग रहल बा. आ जे तनी पुरनका भी बा उ शहरी संस्कृति में लाजे कुछ बोलत नईखे..
    एह साल उत्तम नगर दिल्ली के एगो पार्क में छठ के आयोजन रहे, ओहिजा मेहरारू लोग के जमघट रहे बाकी एको ओर से छठ के गीत ना फूटल… महल्ले के दुगो बुढ़ रही लोग उनका से कहनी त जवाब आइल कि केहु गावते नईखे त हम काहे गायीं ? अब एह बदलल मानसिकता में रीति रिवाज संस्कार आ ओहसे जुड़ल गीत कईसे बाँची ?

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