अकिल आ भँईस

by | Mar 19, 2012 | 0 comments

– जयंती पांडेय

जब से अखबारन में मार छपे लागल कि सरकार खेती के बढ़ावा देवे के खातिर कई-कई गो सुविधा दी तबसे गांव छोड़ के सात बरिस पहिले आइल टेकमन पंडित के नाती लुटमन तिवारी ‘दीपक’ उर्फ ‘दीपक एल एम’ गांव आके खेती करे खातिर आवे के मन बनावे लगलस.

गांव में, उनकर चार-पांच बीघा जमीन रहे जेकरा बटाईदारन के दे के ऊ सात बरिस पहिले कलकत्ता आ गइल रहले. उनका नांव के साथ उनकर ‘उपनाम’ भी लागल रहे एह से शहर के हिंदी भाषी लोग बूझि गइल कि ऊ एगो साहित्यिक प्राणी हउअन. एगो दोस्त एगो वकील के इहां मोहरिरी के काम लगा दीहलस. बंगाली वकील साहेब नांव सुनते कहले ‘उई बाबा एक नाम में दो नाम नहीं चलेगा, गैर कानूनी काम है.’

एकरा बाद एगो सेठजी के घर में लईका पढ़ावे के ट्यूशन लाग गइल लेकिन उनकर उपनाम सुन के कहले ‘क्यों जी ? गाणा-वाणा तो नहीं बजाते हो ?नहीं जी, हमें ऐसा मास्टर नहीं चाहिए. ’ चारू इयोर से हार के लुटमन पंडित आपन नांव कुछ बदल देवे सोचले आ नांव हो गइल ‘दीपक एल एम’ . नाव बदलते चमत्कार भइल एगो पेंस में प्रूफ देखे के काम मिल गइल. लेकिन खेती के बढ़ावा दिहला के अइसन प्रचार सुनले कि एक दिन लोटा कम्मर लेके गांव चली अइले. गांव के लोग जब उनका लवटे के खबर कारण सहित सुनल, त अचरज भइल. लोग समझावल लेकिन काहे के मानस. उनका आंखि में त गोहूं आ मकई के बाल लउकत रहे. जब नींद आवे त मटर आ रहर के सपना देखस. ऊ कहे लगले कि शहर में लोगन के लिखला में गलती सुधारत रहनी अब अइजी अपना भाग के लेख में जवन गलती भइल बा तवन सुधारब.

अब खेती खातिर हर-बैल चाहे ट्रैक्टर चाहीं, त लुटमन तिवारी हर-बैल कीन लिहले. लेकिन हरवाह कहां से पावस. आज काल गांव में जे सबसे निकम्मा होला उहे हरवाही करेला. निकम्मा माने जेकरा ‘घर-घराड़ी’, ‘छौनी-छप्पर’ अउर ‘कोड़-मकान’ के कौनो लूर ना, जे गाड़ी बैलो ना हांक सके अइसने फूहर आदमी हरवाही करेला. अइसन लोग गांव में बड़ा कम भेंटाला. एकाध गो होखबो करेला त ओकरा बड़का किसान लोग आगे से कर्जा दे के बान्ह देला. से बहुत खोजला पर लुटमन के मनरखन मिलले. अब ऊ सवेरे एगो पाउच पी के खेत में गइले आ एतना मस्ती चढ़ल कि दहिनवारी बैल के पछिला गोड़ में फार लाग गइल. अब लुटमन के मालूम ना रहे कि एगो फार के घाव अतना गहिर होई कि महीना दिन बैल बइठ जाई. महीना भर ले हरवाह आ खेतिहर दूनो बोवाई के आनंद में मगन रहे लोग. बोवाई के बाद एकदिन सबेरे एक आदमी आ के दरवाजा पीटे लागल. लुटमन उठले त ऊ लस्टमानंद रहलें कहले शहर से खेती करे आइल बाड़ आ एहिजा सुतल बाड़. जाके खेत में देखऽ कि जवन बोवले बाड़ ओह में से एको दाना बांचल बा कि ना. जा के देखले त सैकड़न गौरैया आ कउआ खेत में गोहूं बीन बीन खा तार सन. लुटमन के मुंह से हाय निकलन लेकिन चिड़ियन पर कवनो असर ना पड़ल. ऊ ढेला उठा के बिगले त दू चार गो चिरई एने से उड़ के ओने बईठ जा सन बस. ऊ अब खेत के मेड़ी पर दऊर दऊर ढेला बीगे लगेले. दिन जब चढ़ि आइल आ चिरइन के पेट भर गइल त ऊ अपने उड़ के बांस के फुताली पर आ गाछन पर बइठ गइली सन. अब लुटमन के पइसो ओरा गइल रहे आ जोशो कम हो गइल.

उनका ना मालूम हो गइल कि खेती करे खातिर खाली जोशे ना अनुभवो चाहीं. खाली भँईसे ना अकिलो चाहीं.


जयंती पांडेय दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. हईं आ कोलकाता, पटना, रांची, भुवनेश्वर से प्रकाशित सन्मार्ग अखबार में भोजपुरी व्यंग्य स्तंभ “लस्टम पस्टम” के नियमित लेखिका हईं. एकरा अलावे कई गो दोसरो पत्र-पत्रिकायन में हिंदी भा अंग्रेजी में आलेख प्रकाशित होत रहेला. बिहार के सिवान जिला के खुदरा गांव के बहू जयंती आजुकाल्हु कोलकाता में रहीलें.

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