– अक्षय पाण्डेय
(एक) सुनऽ धरीछन !
जिनिगी में बहुते जवाल बा
छन भर हँसी-प्यार संग जी ले।
पानी के जी भर उछाल के
मुट्ठी में रेती सम्हाल के
गुनऽ धरीछन !
मन में त बहुते मलाल बा
छन भर नदी-धार संग जी लऽ।
काँकर-पाथर भइल आदमी
केतना बंजर भइल आदमी
चुनऽ धरीछन !
रहता बहुते ऊँच-खाल बा
छन भर बुधि-बिचार संग जी लऽ।
आसमान में उड़े पखेरू
डार-पात से जुड़े पखेरू
तुनऽ धरीछन !
मौसम बहुते ढील-ढाल बा
छन भर सज-सँवार संग जी लऽ।
रचे सगुन आनन्द नया कुछ
मन सिरजे अब छन्द नया कुछ
बुनऽ धरीछन !
एह सुगन्ध में तुक न ताल बा
छन भर हरसिंगार संग जी लऽ।
सुनऽ धरीछन !
(दू) आग लागल
आग लागल
बच सके जे कुछ
बचावल जाव घर में।
मेज पर चश्मा
कलम टोपी घड़ी बा
आज कोना में पड़ल
सोचत छड़ी बा
धाँग देहलीं थाह हम अपना समय के
हो गइल बेकार बानीं एह उमर में।
दियरखा कऽ बगल में
ऐना टंगल बा
भइल अब आन्हर
इ आपन भागफल बा
दाग चेहरा पर लहू के उभर आइल
तन गइल तलवार अपना अंश-हर में ।
जर रहल गीता
जरत किताब बाटे
जर रहल सँइचल
सकल सामान बाटे
बन्द बा पिंजरा तनी खोलऽ झपट के
मर रहल बा नेह कऽ सुगना लवर में।
मर्सिया फिर लोग
काहें गा रहल बा
ई चिराइन धुआँ
काहें छा रहल बा
डार पर बइटल कबूतर सोच में बा
फूल ना लागत असो एह गुलमोहर में।
(तीन) निर्मला
घर आँगन देहरी दालान
कुल उदास भइल
धीर धरऽ
एतना मत रोवऽ तूँ निर्मला
धूप-छाँह मिल-जुल के ढोवऽ तूँ निर्मला।
टूटे ना मन के ऐना
सम्हार लऽ तूँ
रूप अब अनूप लगे
अस सँवार लऽ तूँ
बिखर गइल बान्हल ई जूड़ा
त का भइल
आन्ही फेर डालि गइल कूड़ा
त का भइल
भीतर के घन अन्हार
हाथ से बहार के
आँखिन में सपना फेर बो लऽ तूँ निर्मला।
खोलऽ खिड़की
घर में सुघर हवा आवे
समय क मुड़ेरी पर
सुर-पंछी गावे
अँजुरी-भर ले गुलाल
हवा में उड़ा दऽ
घर के कोना-कोना
फूल से सजा दऽ
नींद में रही कब ले
नदी के गोहार के
थाकल चेहरा रुआँस धोवऽ तूँ निर्मला।
चिरइन से चहक
पंख-तितली से रंग लऽ
सागर के लहरन से
जिये के उमंग लऽ
चाँद के हँसी
अपना ओठ पर उतार लऽ
तुलसी के चउरा पर
सँझवाती बार लऽ
अँचरा में गमकत
मन हरसिंगार धार के
हँसि-हँसि के जिन्दगी सँजोवऽ तूँ निर्मला।
(चार) इहे कहानी बा
हर कोना बइठल हलकानी बा
अपना घर क इहे कहानी बा।
मुँह क भरे कठौती ओन्हल
चाकी चुप, चूल्हा उदास बा
बटलोही से लड़े भगौना
गगरी क लागल पियास बा
चिरुआ भर बस बाँचल पानी बा
अपना घर क इहे कहानी बा।
आँख उरेहे सपना पल छिन
कागा अब ना सगुन उचारे
उतरी चंदा कब आँगन में
रोज अमावस काजर पारे
करिखा करिखा कुल जिनगानी बा
अपना घर क इहे कहानी बा।
बा दबाव छत का देवाल पर
कइसे खुली नया दरवाजा
खूँटी-खूँटी भूख टंगल बा
आन्हर रानी आन्हर राजा
लोकतन्त्र क लाश चुहानी बा
अपना घर क इहे कहानी बा।
(पांच) बाबा के गँउवाँ
कारी लउर लंगोटा लोटा
अरवन याद पड़े
बाबा के गँउवाँ सिवान घर
आँगन याद पड़े।
फेंड़ रूख चिरई-चुरुंग
सबके सनेह बाँटे
सबका सुख में पुलके सब
दुख में पुरहर आँटे
हरियर सपना हँसे नयन में
नाचे निरछल चान गगन में
मन में उठे उछाह त जइसे
बचपन याद पड़े।
कल कल लहरे धार हिया में
साँस-साँस बिचरे
नदिया हरख असीसे सबके
दूधेपूत भरे
बदरी हँसि-हँसि काजर पारे
बिजुरी आँख तरेर निहारे
छहर-छहर बरिसत रस बुनिया
सावन याद पड़े।
आज शहर में सबही
आपन-आपन घाव जिये
हर चेहरा अजनबियत ढोवे
अजब दुराव जिये
भीतर कइसन जंगल जागल
नेत नियत में देंवका लागल
अइसन असगुन में सनेह के
मधुबन याद पड़े ।
(भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका पाती के दिसम्बर 2022 अंक से साभार)
(अक्षय पाण्डेय कवि-प्रतिभा आ कवि-कौशल से संपन्न अइसन प्रतिभासंपन्न कवि हउवन, जिनका कवि-कर्म में भोजपुरी-लोक अपना भाव-सुभाव, सोच-सरोकार आ भंगिमा से सजल बा। नव भाषा-शिल्प आ नया लयदारी के गीति-रचना के हुनर उनका कौशल के वैशिष्टय बा। भोजपुरी जीवन-जगत का राग-रंग, चाह-चिन्ता, आस-भरोस आ संघर्ष के सघल सार्थक अभिव्यक्ति कवि का गीतन में परतच्छ देखल-समझल जा सकत बा।)
अक्षय पाण्डेय
प्रवक्ता (हिंदी) इन्टर कॉलेज,
करण्डा, गाजीपुर, उ.प्र