पिछले दिनों देश की सर्वोच्च अदालत ने एक निर्णय दिया है जिसमें आरक्षण मिले वर्गों को उपवर्गों में विभाजित किया जा सकता है. साथ ही अदालत ने, चाह कर भी न्यायालय नहीं कह पाता देश की अदालतों को, यह भी कहा है कि क्रीमी लेयर वालों को आरक्षण सुविधा से वंचित कर दिया जाय.
अदालत के इस फैसले से देश में एक नई बहस शुरु हो गई है. देश के विकास के पक्षधर गिरोहों का मानना है कि इस से विकास की दिशा में बढ़ना मुश्किल हो जाएगा. बहुत कोशिशों के बाद क्रीमी लेयर वालों ने आरक्षण से उपजी समस्या का निदान खोजा ही था कि अदालत उसे रोकने पर आ गई. आखिर आरक्षित जाति समूहों के सामर्थ्यवान परिवारों से आने वाले अभ्यर्थी सामान्य वर्गों के अभ्यर्थियो से किसी मामले में कम नहीं पड़ते. दूसरे क्रीमी लेयर से आने के चलते वे भ्रष्टाचार कम करते हैं या उससे होने वाली आय कि सही तरीके से निवेशित कर पाते हैं. इतने सही तरीके से कि देश कि प्रवर्तन ईकाईयां भी उसे खोज नहीं पाती.
साथ ही सिर्फ क्रीमी लेयर तक ही आरक्षण सुविधा को सीमित कर देने के समर्थक वर्ग का कहना है कि जब जनता मान चुकी है कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी तब इस के विपरीत आचरण करना सही नहीं माना जा सकता. होना यह चाहिये कि पिछड़ा वर्ग को मिलने वाली सारी सुविधा इस वर्ग की बड़ी जातियों को ही मिलना चाहिये न कि उनको जिनकी गिनिती बहुत ही कम है. अब अनुसूचित जाति और जनजाति वर्गों में भी सारा आरक्षण इन वर्गों के बड़े समूहों को ही मिलना चाहिये. छोटी जनसंख्या वाले समूहों में न त वोट बैंक बन सकता है न ही वे कोई बड़ा आन्दोलन खड़ा कर सकते हैं. इसके उलट अगर बड़ी जनसंख्या वाले जातियों को आरक्षण से वंचित करने का प्रयास हुआ तो वोट विरोध और उनकी आन्दोलन की क्षमता से सभी परिचित हैं. क्या आप चाहते हैं कि गुजरात के पटेलों, महाराष्ट्र के मराठियों. राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों और गुज्जरों जैसा आन्दोलन बिहार यूपी के यादव कुर्मी वगैरह भी करने लगें. सोचिये तब देश में कितनी अराजकता फैल सकती है. इसलिये सरकार और अदालतों को देशहित में निर्णय लेना चाहिये और आरक्षण सुविधा संबंधित वर्ग के सिर्फ क्रीमी लेयर वालों को देने का निर्णय समय रहते ले लेना चाहिये. वरना हिन्दुस्तान का इतिहास गवाह है कि जब जब केन्द्रीय सत्ता कमजोर पड़ी है तब तब सिपहसालारों की बगावत बढ़ गई है. आज फिर देश में केन्द्रीय सत्ता कमजोर पड़ गई है. उसमें इतना सामर्थ्य नहीं बचा है कि देश में होने वाले किसी बड़े आन्दोलन से निपट पाए. जो पक्ष अपने समर्थकों को भी हिंसा का शिकार बनने से रोक नहीं पाता उससे किसी भी तरह की आशा रखना निरर्थक होगा.