– अशोक द्विवेदी
आपन भाषा आपन गाँव,
सुबहित मिलल न अबले ठाँव ।
दउरत-हाँफत,जरत घाम में,
जोहीं रोज पसर भर छाँव ।
जिनिगी जुआ भइल शकुनी के,
हम्हीं जुधिष्ठिर, हारीं दाँव ।
कमरी ओढ़ले लोग मिलत बा
केकर केकर लीहीं नाँव ।
जरलो पर बा अँइठन एतना,
सब अमीर , सब बा उमराँव ।
अपने उगिलल बिख ना उतरे,
मन्तर जाला रोजे बाँव ।
गील भइल परथन पिसान के,
गुन-गिहिथान, बिना मलिकाँव !!