पाण्डेय कपिल : जिनिगी के हिसाब

– भगवती प्रसाद द्विवेदी

भोजपुरी आन्दोलन के संगठनात्मक अगुवाई आ सिरिजना के अभूतपूर्व ऊँचाई देबेवाला शख्सियत के नाँव ह – आचार्य पाण्डेय कपिल। एक ओर ‘फुलसुंघी’ जइसन जियतार – यादगार उपन्यास के कामयाबी, उहँवें गीत, ग़ज़ल, दोहा के दुनिया में मील के पाथर गढ़ेवाला व्यक्तित्व। सन् 1970 से ग़ज़ल-लेखन में सक्रिय आचार्य पाण्डेय कपिल के गीत-संग्रह ‘भोर हो गइल’ 1971 के गीत त शोहरत के बुलन्दी के छुअबे कइलन स, ओह में शामिल दूगो ग़ज़लो चरचा का केन्द्र में रहली स, जवना के नतीजा ई भइल कि उहाँ के ग़ज़ल-संग्रह ’कह ना सकलीं’ 1995 के एकावन गो ग़ज़लन के मार्फत ग़ज़लगो अइसन बहुत किछु कहि गइल रहे जवन ओकरा पहिले केहू ना कहि सकल रहे। आगा चलिके ’परिन्दा उड़ान पर’ के परिन्दा अइसन उड़ान भरले रहे कि ग़ज़ल कहे आ जाँचे-परखे वाला लोग सुखद अचम्भा में परि गइल रहे। ग़ज़ल का सँगहीं ’जीभ बेचारी का कही’ के दोहन के मारक आ बेधक-क्षमता देखते बनत रहे। एह सब उत्कृष्ट सिरिजनशीलता का बाद आचार्य जी के काव्यात्मक पहल रहल बा दुनिया के शतरंज बिछल बा’ का रूप में, जवना में बिनल-बिछल कुल्हि एकावन गो रचना संग्रहीत बाड़ी स। इन्हनीं में अधिकतर ग़ज़ल बाड़ी स आ सँगे-सँगे चन्द गीत, मुक्तक़ आउर मुक्त छन्द के अइसनो रचना शामिल कइल गइल बाड़ी स, जवन पहिलहीं से चर्चित बाड़ी स।

वैश्वीकरण के एह बाजा़रवादी दौर में शतरंजे नियर जिनिगी में शह-मात के खेला बदस्तूर जारी बा, तबे नू ग़जलगो के शीर्षक ग़ज़ल में ई कहे खातिर अलचार होखे के परत बा, पढ़निहारन के आगाह करत कि :
’दुनिया के शतरंज बिछल बा, खेलीं सम्हर-सम्हर के
जनीला नू जे होला घोड़ा के चाल अढ़ाई !’

नेह-नाता, भाई-चारा आ सोच त बिकाते बा, मनई अब संसाधनो बनि चुकल बा आ इंसानियत के मोल-तोल, बैपार जारी बा :
’अब बाजारु माल भइल बा आदमी
आदमियत के होखत अब व्यापार बा।’

बाकिर दुनिया के रंग बदलत गिरगिटी सुभाव में समाज के सकारात्मक तव्दीली के मन-मिजाज कतहीं नजर नइखे आवत। ई रंग-ढंग रचनाकार के सालत बा :
’युग त बदलल, समाज ना बदलल
लोग के मन – मिजाज ना बदलल।’

तबे नू जिनिगी एगो ’खामोश हलचल’ आ ’जल बिना मछरी’ बनिके रहि गइल बिया :
’जिन्दगी खामोश हलचल हो गइल
जिन्दगी मछली बिना जल हो गइल।’

बुढ़ाइल (वार्धक्य) जिनिगी पर रचाइल पति-पत्नी के सुखमय संसार में ’जब एगो ना रही त दोसरका के का होई’ के सवाल मरम के बेधला बेगर नइखे रहत :
’नइखी जानत जे दोसर के का होई
जब एगो मउअत के चद्दर तानी जी ।’

रचनिहार के भरपूर भरोसा बा कि सुख ना, बलुक दुखे जिनिगी में आस-बिसवास लेके आवेला :
’मत पिलाई जाम सुख के दुख सम्हारे वासते
सच कहीं त दुख बनल एह जिन्दगी के बल हवे।’

ताज के गरदन काट समय के देखियो के ग़ज़लगो कतहीं से निरास-हतास नइखे। आस्था-बिसवास के एगो सुर देखीं :
’सउँसे सेना लेके लड़िहें भलहीं दुर्योधन
जेने होइहें किसुन कन्हैया उनके जय होई।’

संग्रहीत ग़ज़लन में जिनिगी के बेबसी, लौकिक-अलौकिक प्रेम, अनुभव के पोढ़ता, अनुभूति के सघनता आ जिजीविषा के गूँज ढेर देरी ले आँतर के भीतर पइसि के उदबेगत रहत बा। ई ग़ज़ल सही माने में भोजपुरिया मुहावरा का रंग में रंगाइल बाड़ी स। ओइसे त इन्हनी में छोट-बड़ दूनों बहर के ग़ज़ल बाड़ी स, बाकिर छोट बहर के ज्यादातर ग़ज़लन के कसाव आ लयात्मकता देखते बनत बा। भाषा के पनिगर प्रवाह आ अत्यन्त सहजता से गहिर चोट करेके रचनात्मक कौशल इन्हनीं में बखूबी देखल जा सकेला। मूल्यबोध के एहसास करावे वाली, जीवन-दर्शन से लबरेज ई ग़ज़ल ’सोच के उठान’ के सबूत पेश करत बाड़ी स। मिथकन के आज के संदर्भ में सटीक प्रयोग इन्हनीं के एगो आउर खासियत बा। ’‘मोती जइसन बा ओस सजल / पोखर के पुरइन पात भइल’’ के कुदरती छटा भला केकर मन ना मोही !

संग्रह के आधा दर्जन मुक्तक, ’राउर मरजी’ गीत आ समकालीन कविता ’कुत्ता के मउअत’ से कृति के अभिनव आयाम मिलत बा। एगो गीत में ’मन के बात’ बतावत गीतकार कठिन-से-कठिन दौरो में हिम्मत ना हारे आ अनवरत आगा बढ़त जुझारूपन बरकरार राखे खातिर अभिप्रेरित करत कहत बा :
’जिनिगी के जीयल ह
बड़की लड़ाई
डेगे-डेग होखेला
पहाड़ के चढ़ाई
मिले जब घात पर घात
केहू जूझत नइखे।’

आज जब राष्ट्र-प्रेम आ देस खातिर जिए-मरे के भावना के लगातार छरन होत जा रहल बा, कवि राष्ट्रीयता के जोत जरावल जरूरी जिम्मेवारी बूझत बा आ ’भारत-गीत’ का जरिए अपना देस के विलक्षण खूबियन के जियतार ढंग से चित्र उकेरत पढ़निहार के विकल कऽ देत बा।

पचपन गो रचनन के एह संग्रह में समाज के बदलत सरूप, आम अदिमी के जिए-मरे के बेबसी, कठकरेजी सुभाव आ विषम हालातो में जिनिगी के सार्थक बनावे बदे चट्टान नियर अडिग होके संघर्षशीलता के मिसाल पेश करेके उत्प्रेरणा खास तौर से रेघरियावे जोग शाश्वत अभिव्यक्ति बा। कवि हर रचना में मनुजता के पच्छ में ठाढ़ लउकत बा। एह से एह निठुर समकाल में एह कृति के उपादेयता अउर बढ़ि जात बा।ॉ

ई अनुपम संग्रह भोजपुरी के नामी-गिरामी ग़ज़लगो-गीतकार आदरणीय जगन्नाथ जी के समर्पित कइल गइल बा। उहाँ के संबोधित एगो ग़ज़ल में पाण्डेय कपिल जी के कहनाम बा :
’अब ना कविता लिखाता जगन्नाथ जी
मन ना लागल बुझाता जगन्नाथ जी!’

उहँवें एगो शेर में उहाँ के मौन के ताकत के इजहार करत कहले बानीं :
’बात जे मौन रहके कह दिहलीं।
लाख चहलो प ऊ कहा ना सकल।’

उमिर का 87वाँ बरिस में भोजपुरी के निष्ठावान पाण्डेय कपिल जी एहू घरी रचना कर्म से जुड़ल-बन्हाइल, भोजपुरी के रचनात्मक आन्दोलन क गतिशीलता के जीवन्त साखी बानी।


भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका पाती के सितम्बर 2017 अंक से साभार


पो0 बा0 – 115, पटना 800001 (बिहार)

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