बदलत-समय

  • डॉ अशोक द्विवेदी

सगरी परानी
भइल आजु शहरी
गँउवाँ का बिचवाँ में
सून परल बखरी !

घरनी ले पुतवे का छोह में धधइली
पूत का गदेलन में जाइ अझुरइली
बुढ़ऊ के बहरी क
झाँय-झाँय कोठरी !

हँसे-खिलखिलाये क सोर न सुनाला
अँगना-दलान क’ समान भुइलियाला
तनिको अन्हारा में-
साँप लगे रसरी !

बुढ़ऊ का पोवसु, पिसान ना सनाला
लपसी प’ जून भा कुजून कट जाला
पहिले असान रहे
सतुई क लबरी !

केकरा से भितरा क पीर बतियावें
मनगुपते दुखवा के रोज महटियावें
घरवा क मोह भइल
जिउवा क फँसरी !

छोड़ल न जाय घर गाँव खेत बारी
जिनिगी भर सेवलन ऊ होई गइल भारी
पुरखन क पगरी
बुझाय आज लुगरी !


बखरी – बँगला/घर-दुआर-बैठका,
गदेलन – लड़िकन,
भुइलियाला – सड़न के बाद फफूँद लगना,
लबरी – गाढ़ घोल,
सेवलन – संचित करना,
लुगरी – लूगा – (बे जतन की सिकुड़ी हुई साड़ी)

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