आजकल देश की राजनीति कौन जात हो, बालक बुद्धि, या बैल बुद्धि की चरचा में व्यस्त है. बैलों से मुझे याद आया कि आजादी के बाद के शुरुआती कालखण्ड में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न बैलों की जोड़ी होती थी. मैंने बहुत कोशिश की कि उस कालखण्ड में वैसे दो बैल खोज निकालूं जिनका उपयोग आलंकारिक तौर पर किया जा सके. नहीं मिले. मगर मैं यह नहीं जानता था कि कांग्रेस भविष्य के बारे में भी जानकारी रखती थी कि एक दिन उसके पास दो बैल होंगे.
मैंने पहले तो काग्रेस का वह पुराना चुनाव चिह्न खोज निकाला जो चुनाव आयोग की वेबसाइट से लाकर वीकीपीडिया पर डाला गया है. चित्र परिचय में वह लिंक दे दिया गया है. इस चुनाव चिह्न को मैंने काफी गौर से देखा. बहुत कोशिश करने के बाद भी यह पता नहीं लगा पाया कि बैलों की यह जोड़ी बनी किस लिए थी. क्योंकि इनके पीछे कोई बैलगाड़ी तो नहीं ही थी, किसानी में काम करने के लिये हल या कोई और उपकरण भी नहीं दिखा. तो फिर बैलों की जोड़ी का मकसद क्या था ? शायद वह भविष्य में देख रहे थे कि एक दिन उनकी उद्देश्य पूर्ति के लिए दो बैल साथ आ जाऐंगे. व्यंग्य लिखने में एक खतरा हमेशा रहता है कि पाठक आपकी बात को किसी दूसरे संदर्भ में देख सकता है. और व्यंग्य लेखक इस खतरे को जानते समझते हुए भी लिखने से बाज नहीं आता. उसे याद नहीं रहता कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहला अंकुश देश के महान नहीं महानतम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने लगाया था और आज की बुरी हालत में भी कांग्रेस के पास तीन राज्य सरकारे हैं !
अब बात जब कांग्रेस की हो रही है तो मुझे एक पुराना किस्सा याद आ रहा है. एक माली के पास एक खुरपी थी जिसे वह बहुत गर्व के साथ सबको दिखाया बताया करता था कि मेरी यह खुरपी खानदानी है और मेरी सफल बागवानी का श्रेय इसी खानदानी खुरपी को दिया जाना चाहिये. एक श्रोता पूछ बैठा कि देखने में तो यह उतनी पुरानी नहीं लगती, खुरपी पर कोई जंग नहीं है और इसकी मूठ भी सही-सलामत है तो उसने बताया कि जब खुरपी वाला हिस्सा खराब होता है तब उसे बदल दिया जाता है और जब मूठ खराब हो जाती है तो उसे. ठीक यही स्थिति कांग्रेस की भी है. यह बताई तो खानदानी जाती है पर बताने वाला यह नहीं बता पाता कि ब्रिटिश अधिकारी ह्यूम की योजना से बनाई गई इस संस्था का मूल स्वरूप अब कहां है. पता नहीं कि अनगिनत विभाजनों के बाद वर्तमान कांग्रेस की वल्दियत ह्यूम तक कैसे पंहुच सकती है. क्योंकि जब पहली बार विभाजन हुआ था तो कांग्रेस का मूल संगठन कांग्रेस ओ बन गया था जबकि विद्रोही गुट कांग्रेस आर बना था. इस तरह असली कांग्रेस तो संगठन कांग्रेस ही होती है. उसके बाद भी विभाजनों के कई दौर चले और तकरीबन हर अल्फाबेट इस्तेमाल में आ ही गये.
तो कांग्रेस के मूल चुनाव चिह्न बैलों की जोड़ी में उनके कंधे पर रखा जुआठ ही उनको जोड़ता है. और आज की राजनीति में यह जुआठ जातिगणना के नाम से जानी जाती है. अब दो बैलों की आपत्ति है कि उनकी जाति क्यों पूछी जा रही है. जाति तो मनुष्यों की, खास कर हिन्दुओं में हुआ करती है और उनको हिन्दू किस आधार पर माना जा रहा कि उनसे उनकी जाति पूछी जा रही है. ऐसा नहीं कि बाकी संप्रदायों में जाति नहीं होती पर उनका जोर नहीं होता या उस पर जोर नहीं दिया जाता. सचमुच ही यह बहुत ही असभ्य तरीका है किसी को अपमानित करने के लिए कि उसे कहा जाय कि तुम्हें तो तुम्हारी जाति का ही पता नहीं है. इस तरह के असंसदीय आचरण की भर्त्सना होनी चाहिए.
पर भाजपा अब खग जाने खग ही की भाषा मानने लगी है. शठ से शठ की ही भाषा में बात करने लगी है और इस उद्देश्य पूर्ति के लिए उसके पास बयानवीरों की कमी नहीं. अनुराग ठाकुर तो छोटी मोटी हस्ती हो जाएगें जब मोदी ने खुला शह दे दिया है ऐसी बयानबाजी को. काग्रेस और इंडी गठबन्धन परेशान है कि कैसे भाजपा के इस वार की धार कुंद कर दी जाय. सो राहुल के सलाहकारों ने सलाह दे दी कि अरविन्द केजरीवाल वाली शैली अपना लो. राहुल ने तुरत बयान जारी कर दिया कि उसके घर ईडी का छापा पड़ने वाला है और इस बार किंकर्तव्यविमूढ़ होने की बारी है मोदी सरकार की. अगर जल्द ही ईडी का छापा नहीं पड़ा तो लिब्रान्डु मीडिया शोर मचाने लगेगा कि मोदी डर गया. और अगर ईडी छापा मार ही देती है तो कहेंगे कि देखो हमलोग तो पहले से ही बता रहे थे.
भई गति साँप छछून्दर की री, उगलत आन्हर निगलत कोढ़ी !