लोक कवि अब गाते नहीं – ८

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)

सातवाँ कड़ी में रउरा पढ़ले रहीं कि
पत्रकार के नाराजगी का बादो लोक कवि के सम्मान मिलल आ सम्मानित होखला का बाद ऊ अपना गाँवे चहुँपलन. चेयरमैनो साहब उनुका साथही रहलन आ दस हजार रुपिया दे के लड्डू ले आवे खातिर लोक कवि के भाई का साथे अपना ड्राइवर आ गार्ड के भेजलन. पूरा गाँव लोक कवि के स्वागत में उमड़ पड़ल रहे.
अब ओकरा से आगे पढ़ीं …..


गाँव के लोगन के आवाजाही बढ़ले जात रहुवे. एह भीड़ में कुछ बड़को जाति के लोग रहुवे. गाँव के प्राइमरी स्कूल में स्पेशल छुट्टी हो गइल त स्कूल के लड़िको चिल्ल-पों हल्ला करत आ धमकले सँ. साथही मास्टरो साहब लोग. एगो मास्टर साहब लोक कवि से कहले, “गाँव के नाम त आपके नाम के नाते पहिलहीं से बड़ रहल ह एह जवार में लेकिन आजु अपने गाँवो के नाम रोशन करा दिहलनी.” कह के मास्टर साहब गदगद हो गइले. तबहिये कुछ नवही सभ काका-काका कहि के लोक कवि से गावे के फरमाईश कर दिहले. लोक कवि लाचार हो गइलन. कहले, “जरुरे गवतीं. एहिजा अपना मातृभूमि पर ना गायब त कहाँ गाएब ?” फेर आगा जोड़ले, “बाकिर बिना बाजा-गाजा के हम गा ना पाएब. रउरो सभे के मजा ना आई.” ऊ हाथ जोड़त कहले, “फेर कबो गा देब. आजु खातिर माफ करीं.”

लोक कवि के ई जबाब सुनि के कुछ शोहदा बिदकलें. एगो शोहदा भुनभुनाइल, “नेतवन खातिर गावत-गावत नेता बनि गइल बा साला. नेतागिरी झाड़त बा.”

अबही भीड़ में ई आ कुछ अइसने खुसुर-फुसुर चलते रहल कि एगो बुजुर्ग जइसन बाकिर गदराइल देह वाली औरत एक हाथ में लोटा आ दोसरा में थरिया लिहले कुछ अउरी औरतन का साथे लोक कवि का लगे चहुँपल आ चुहुल करत गोहरलसि, “का ए बाबू !”

लोक कवि उनुका के देखते ठठा के हँस पड़ले आ उनुके सुर में सुर मिलावत बिल्कुल उनुके लय में कहले, “हँ हो भउजी !” कह के लोक कवि लपक के निहुरले आ उनुकर गोड़ छू लिहले.

“जीयऽ ! भगवान बनवले रहैं” कहि के भउजी थरिया में राखल दही-अक्षत, हल्दी दूब आ रोली मिला के लोक कवि के टीका कइली. दही तनी एह गाल पर तनी ओह गाल लगावत लोक कवि से चुहल कइली. एही बहाने भउजी लोक कवि का गाल पर चिकोटिओ काटि लिहली आ फिस्स से अइसन हँसली कि भउजियो का गाल में गड़हा बनि गइल. संगे आइल औरतो ई सब देखि के खिलखिला के हँस पड़ली. पल्लू मुँह में दबवले. जबाब में लोको कवि कुछ चुहल करतन, ठिठोली फोड़तन कि ओकरा पहिलही भउजी परिछावन के गाना, “मोहन बाबू के परीछबों…” गावल शुरु कर दिहली आ लोढ़ा ले के लोक कवि के परीछे लगली. संगे आइल औरतो गाना गावत बढ़-चढ़ के बारी-बारी से परीछत गइली.

लोक कवि एहसे पहिलहू दू बेर परिछाइल रहले, एही गाँव में. एक बेर अपना शादी में, दोसरका बेर गवना में. तब ऊ ठीक से जवानो ना भइल रहले. बच्चा रहले तब. आजु जमाना बाद ऊ फेर परिछात रहले. अपना मनपसंद भउजी का हाथे. अब जब ऊ बुढ़ापा का गाँव में डेग धर दिहले रहलन. तब के बचपन के परिछावन में उनुका मन में एगो उत्तेजना रहे, एगो कसक रहे. बाकिर आजु का परिछावन में एगो स्वर्ग जइसन अनुभूति मिलत रहे, सम्मान आ आन के अनुभूति. अतना गौरव, अतना सुख त मुख्यमंत्री से मिलल पाँच लाख रुपिया वाला सम्मानो में आजु ना मिलल रहुवे, जतना भउजी के एह परिछावन में उनुका मिलत रहुवे. लोक कवि मूड़ी गोतले मुसुकात विनीत भाव से परिछात रहले. अइसे जइसे कि उनुकर राजतिलक होत होखे. ऊ लोक गायक ना लोक राजा होखसु. परीछे वाली औरत तनी तनी देर पर बदलत जात रहली आ उनुकर गिनती बढ़ले जात रहुवे. अबही परिछावन गीत का साथे परिछावन चलते रहल कि नगाड़ो बाजल शुरु हो गइल. गाँवे के कुछ उत्साही औरत गाँव का चमरौटी से लड़िकन के भेज के ई नगाड़ा मँगवले रही. एकरा साथही लोक कवि के देखे ला चमरौटिओ के लोग उमड़ि आइल.

लोक कवि गदगद रहले. गदगद रहले अपना माटी में ई मान पा के.

नगाड़ा बाजत रहे आ परिछावनो होत रहे कि तबहिये एगो बूढ़ाइल जस औरत खाँसत-भागत आ गइल. लोक कवि से तनिका फरदवला खड़ा हो के उनुका के अपलक निहारे लागल. लोक कवि तनी देरे से सही बाकिर जब देखले त विभोर हो गइले. बुदबुदइले, “का सखी !”

सखी लोक लाज से मुँह से त कुछ ना कहली बाकिर आँखिये-आँखि में बहुते कुछ बोल गइली. थोड़ देर ले दुनु जने एक दोसरा के बिना पलक झपकवले निहारत गइले. कवनो दोसर मौका रहीत त लोक कवि लपकि के सखी के अँकवारी भर लिहते. कस के चूम लिहते. लोक कवि अइसन सोचते रहलन कि सखी उनुका मनोभाव के बुझला ताड़ गइली. ऊ थथमलि आ माथ पर पड़ल आँचर सम्हरली आ गौर से देखली कि कहीं फिसलत त नइखे. सखी अबही एही उधेड़-बुन में रहली कि का करीं, तनी देर अउरी रुकीं कि चल दीं एहिजा से. तबहीं कुछ होशियार औरत सखी के देख लिहलीं. भउजियो सखी के देख लिहली. सखी के देख के तनी नाक-भौंह सगरी सिकोड़ली सँ बाकिर मौका कुछ दोसर रहे से बात ना बढ़वली सँ. एहू चलते कि ई काकी-भउजी टाइप औरत जानत रहली सँ कि कुछ अइसन-वइसन कइला-कहला पर लोक कवि के दुख होई. आ ई मौका लोक कवि के दुख चहुँपावे वाला ना रहे. एगो औरत लपकि के सखी के हाथ धइलसि आ खींच ले आइल लोक कवि तकले, बहुते मनुहार से. बड़ा प्यार से सखी का हाथ में लोढ़ा दिहलसि आ सखिओ ओही उछाह से लोक कवि के परीछली. सखी जब परीछत रहली त लोक कवि के एक बेर मन भइल कि छटक के ओइजे “रइ-रइ-रइ-रइ” करत गावे लागसु. लेकिन सामने सखी का साथे-साथ दुनियो रहे आ उनुका आँखिन के लाजो. से ऊ अइसन सोचिये के रहि गइलन. सोख गइलन लोच मारत अपना भावना के.

सखी खातिर !

सखी असल में लोक कवि के बाल सखी रहली. अमवारी में ढेला मार के टिकोरा, फेर कोइलासी खात आ खेलत सखी का साथे लोक कवि के बचपन गुजरल रहे. फेर सखी का साथे गलियन में, पुअरा में, अरहर के खेतन में, अमवारी-महुवारी में लुका-छिपी खेलत ऊ जवान भइल रहले. गाँव के लोग तब सखी आ लोक कवि के गुपचुप अपना चरचा के विषय बनवले रहुवे. तंज में तब लोग सखी के राधा आ लोक कवि के मोहन कहत रहे. लोक कवि के नाम त मोहने रहुवे बाकिर सखी के नाम राधा ना हो के धाना रहल. लोको कवि पहिले कहतो रहले ओकरा के धाना बाकिर बाद में जब बात बढ़ गइल त सखी कहे लगलन. आ लोग एह दुनु जने के राधा-मोहन कहे लागल. कई-कई बेर दुनु “रंगे हाथ” पकड़इबो कइले, फजीहतो भइल बाकिर एह लोग के जवानी के करार ना टूटल. कि तबहिये मोहना पर नौटंकी, बिदेसिया के “नकल” उतारे के भूत सवार हो गइल. मोहना के राह बदले लागल बाकिर सखी के ऊ तबहियो सधले रहल. सखीओ त रहली मोहने के तरह पिछड़ा जाति के लेकिन मोहना से उनुकार जाति तनी उपर के रहल. मोहना जाति के भर रहल त सखी यादव. गाँव में तब ई फरक बहुते बड़हन फरक रहल. लेकिन राधा मोहन का जोड़ी का आगा ई फरक मेटा जात रहुवे. बावजूद एकरा कि तब राधा के घर बहुते समृद्ध रहल आ मोहना के घर समृद्धि से कई कोस दूर. मोहना के अबही पाम्हीओ ठीक से ना फूटल रहल कि तबहिये जवन कहल जाला नू कि, “हाय गजब कहीं तारा टूटा !” आ उहे भइल. धाना के बिआह तय हो गइल. बिआह तय होखते धाना के “लगन” चढ़ि गइल. घर से बाहर-भीतर होखल बन्द हो गइल. मोहना बहुते अकुलाइल बाकिर भेंट भइल त दूर भर आँखि देखल त दूर, एक झलक पाइयो लिहल ओकरा खातिर दूभर हो गइल. ओह साल अमवारी में सखी का साथे ढेला मार के कोइलासी खाइल मोहना के नसीब ना भइल. तबे मोहना पहिलका ओरिजिनल गाना गवलसि. गुपचुप. जवन कवनो बिदेसिया भा नौटंकी के पैरोडी ना रहल. हँ धुन जरुर कहरवा रहल. गली-गली में ई गाना गात-गुनगुनात फिरत मोहना सबेर-साँझ भुला गइल रहे. पर केहू से कुछ कहि ना पावे. मोहना गावे, “आव चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना!” ऊ इहे एक लाइन गावे, गुनगुनावे आ टूट जाव. कवनो पेड़ का नीचे बइठ के भर हिक रो लेव. राधा के बारात आके चल गइल बाकिर मोहना के भेंट अपना राधा से ना भइल. राधा लउकबो कइल त लगन उतरला का बाद. बाकिर बोलल ना अपना मोहनवा से. मुँह फेर के चलि गइल. पायल छमकावत छम-छम. माँगि में ढेरहन गम-गम लाल-लाल सेनूर देखावत. मोहन के जीव धक्क से रहि गइल. तबहियो ऊ “आवऽ चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना !” गावत गुनगुनात अकेलही चहुँप गइल बलिया के ददरी के मेला में. घूमल-फिरल, खइलसि-पियलसि आ रात खानि ओह जमाना के मशहूर भोजपुरी गायका जयश्री यादव के परोगराम सुनलसि. उनुकर गायकी मोहना बहुते मीठ लागल. खास कर के “तोहरे बरफी ले मीठ मोर लबाही मितवा !” गाना त जइसे जान निकाल लिहलसि. ठीक परोगराम का बाद मोहन जयश्री यादव से मिललसि. उनुका से गाना सीखे, उनुका के आपन गुरु बनावे के कामना रखलसि आ उनुकर गोड़ छू के आशीर्वाद मँगलसि. जयश्री यादव आशीर्वाद त दे दिहले बाकिर गाना सिखावे आ मोहन के चेला बनावे से साफे इंकार कर दिहलन. कहबो कइलन, “अबहीं बहुते टूटल बाड़ऽ त बात गाना गावे के करत बाड़ऽ बाकिर ई तोहरा वश के नइखे. अबही जवानी के जोश बा, जवानी उतरते हमरा के गरियइब. जा, हर जोतऽ, मजूरी धतूरी करऽ, भैंस चरावऽ.” ऊ कहले, “काहे गवनई में जिनिगी खराब कइल चाहत बाड़ऽ ?”

मोहन मायूस हो के घरे लवटि आइल. बहुते कोशिश कइलसि कि गाना बजाना से छुट्टी मिल जाव. बाकिर भुला ना पावल. ऊ फेर गइल जयश्री यादव का लगे. फेर-फेर आवत-जात रहल. बेर-बेर जात रहल. बाकिर जयश्री यादव हर बेर ओकर मन तूड़लन.

फेर ऊ भुला गइल जयश्री यादव के. बाकिर धाना ?

महीनों बीत गइल. मोहन फेर धाना के रुख ना कइलसि. धाना के ध्याने ना आइल मोहन के. ओकरा ध्यान में अब सिर्फ गाना आ बजाना रहे. ऊ आये दिन नया-नया गीत बनावे, गावे आ लोग के सुनावे. गवनई खातिर मोहन अपना गाँव में त मशहूर होइये गइल रजे, गाँव का आस-पास से होत हवात ऊ पूरा जवार में चिन्हाये लागल रहे. मोहन के आवाजो रहल मिसिरी जइसन मीठ आ पगाइल गुड़ जइसन सोन्ह सुगंध लिहले. अबले मोहन का हाथ में बजावे खातिर थरिया भा गगरा का जगहा एगो चंगो आ गइल रहे.

ऊ चंग बजावत-बजावत गावे आ गावत-गावत गाँव के कुरीतियन के ललकारे. ललकारे जमींदारन के अत्याचारन के, उनुका सामंती व्यवहारन के आ गरीब गुरबा के बन्हुआ मजदूर बनावे के साजिश के. गा के ललकारे, “अंगरेज भाग गइले तुहू भाग जा.” भा फेर “गरीबन के सतावल बंद कर दऽ”. एह फेर में मोहन के कई बेर पिटाईओ भइल आ बेईज्जतिओ. सीधे गाना के ले के ना, कवनो ना कवनो दोसरा बहाने. मोहना ई जानत रहे तबहियो ऊ गावल ना छोड़े. उलटे फेर एगो नया गाना के ले के खड़ा हो जाव कवनो बाजार, कवनो कस्बा, कवनो पेड़ का नीचे चंग बजावत, गावत.

एही बीच मोहना के बिआहो तय हो गइल. लगन लाग गइल. बाकिर गवना तीसरे में तय भइल. शादी का बहाने मोहना के औरतन का बीचे धानो लउकल. धाना के बिआह त तय हो गइल रहे बाकिर गवना पाँचवे में तय भइल रहे. माने कि शादी के पाँच बरीस का बाद. दू बरीस त बीत चुकल रहे, तीन बरीस बाकी रहे. एने मोहनो के गवना तिसरके में तय भइल. माने कि तीन बरीस बाद.

धाना गोर चिट्ट त पहिलही से रहुवे, अब घर से कम निकलला का चलते अउरी गोर हो गइल रहे. रंग का साथे साथ ओकर रुपो निखर आइल रहे. धानी चुनर पहिरले धाना के गठल देह अब कँटीलो हो चलल रहे. जब लमहर दिन बाद मोहना ओकरा के भर आँखि देखलसि त ऊ पहिले त सकुचाइल, फेर शरमाइल आ बरबस मुसुका दिहलसि. मुसुकइला से ओकरा गाल में बनल गड़हा मोहना के कंठ भर डूबा लिहलसि. बिबस मोहना ओकरा के बिना पलक झपकवले निहारते रहि गइल.

बारात जब बिआह खातिर गाँव से बिदा भइल त मोहना के लोढ़ा ले के परीछे वाली तमाम औरतन में धानो एगो रहल. परिछावन में मोहना कवनो बहाने धाना के हाथ छू लिहलसि. छूअलसि त लागल जइसे कि दुनु के करंट लाग गइल. आ दुनु चिहुँक पड़ले. एक बेर एह वाकिया के जिक्र लोक कवि चेयरमैन साहब से पूरा संजीदगी से कइले त चेयरमैन साहब चुहल करत कहलें, “४४० वोल्ट के करंट लागल रहे का ?” लेकिन लोक कवि एह ४४० वोल्ट के तफसील तब बूझ ना पवले रहलन आ बाद में जब समुझवला पर समुझबो कइले त चहक के कहले, “एहू ले बेसी !”

खैर मोहन बिआह करे तब ससुराल चहुँपल डोली में बइठ के. नगाड़ा तुरही बजवावत. सेनूरदान के बेरा आइल त पंडित जी के मंत्रोच्चार का साथे मोहना के सखी के साध लाग गइल. माँग त ऊ अपना मेहरारू के भरत रहल बाकिर याद ऊ करत रहल अपना सखी के. ध्यान में ओकरा धाना रहल. ओकरा लागल कि जइसे ऊ धाने के माँग भरत रहे. परीछन का समय धाना के हाथ के छूअन, छूअन से लागल करंट मोहना के मन पर सवार रहल.

मोहना के बिआह मे धोबिया नाच के सट्टा भइल रहे. जब नाच चलत रहे तबो मोहना के मन भइल कि उठे आ उहो खड़ा हो के दू तीन गो बिरहा, कहँरवा गा देव. अउर कुछ ना सही त “आवऽ चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना !” गा देव. बाकिर ई मुमकिन ना भइल काहे कि ऊ दुलहा रहुवे.

खैर, बिआह कर के मोहना अपना गाँवे वापिस आइल. रस्म भइलीं स आ कुछ दिन बाद जब लगन उतर गइल त ऊ फेर गाँव के ताल आ बगइचा में गावत घूमल, “आवऽ चलीं ददरी के मेला, आ हो धाना !” बाकिर धाना कतहीं ना लउकल, सखी कतहीं ना भेटइली. जेकरा के मोहना संगी बनावे के आतुर रहल. हालांकि ओने सखिओ अब बेकरार रहली. बाकिर मोहना से मिले के राह ना लउकत रहल. तबहियो ऊ मोहना के ध्यान लगावे आ सखी सहेलियन का बीच छमकत झूम के गावे, “अब ना बचिहैं मोरा इमनवा हम गवनवा जइबो ना !” ऊ जोड़े, “साया सरकै, चोली मसकै, हिल्ले दुनु जोबनवा. हम गवनवा जइबो ना.” सखिओ सहेली तब धाना से ठिठोली करसु, ” काहे मकलात बाड़ू. बउरा जिन, दिन धरवा ल. आ नाहीं त अलबेला मोहनवा से जी लगा ल. वोहू के गवना अबहिना नाईं भइल बा. त कई देई तोहर गवना, बाकिर इमनवा ले के !” त कवनो सहेली ताना मारत पूछ देव, “कइसे जइबू गवनवा हे धाना !” आ तब के एगो मशहूर गाना ठेका ले के गावे, “ससुरा में पियवा बा नादान रे माई नइहर में सुनलीं !”

धत् ! कहत सकुचात धाना बातचीत से भाग खड़ा होखे. लेकिन सखी सोचत रहली साँचहू मोहनवे का बारे में. सपनो में ऊ मोहनवे का साथे होखसु. कबो चकई के चकवा खेलत कबो अमवारी में ढेला मार के कोइलासि खात. सपनो में ऊ आपन गवनो देखसु बाकिर डोली में अपना मरद का साथे ना बलुक मोहनवे के साथे बईठल होखसु. बाकिर सब कुछ सपने भर में. अपना मरद के शकल त धाना के मालूमे ना रहल. बिआह में नाउनिया हाथ भर के घूंघट भर, चादर ओढ़ा के अतना कस के पकड़ के बइठल रहुवे कि आँखि उठा के देखल त दूर धाना आँखो ना उठा पवले रहल. सगरी बिआह आँख बन्द कइले-कइल पूरा हो गइल रहे. सेनूर का समय त देह थरथर काँपत रहल धाना के आ आँखि रहल बन्द. बस सहेलियन का मार्फते जनलसि कि छाती चउड़ा बा, रंग साँवर बा आ पहलवानी देह बा. बस !

त सपनो वाला गवना में डोली में अपना मरद के छवि धाना देखबो करे त कइसे भला ?

हालांकि ऊ अपना मरद से बिना देखले सही प्यारो बहुत करत रहे. ओकरे नाम के सेनूर माँग में भरत रहल, तीज के व्रत करत रहे. अपना मरद से प्यार करे के ओकर कवनो थाह ना रहे. एक बेर त गाँवे में पट्टीदारी के एगो घर से एकदम नया स्वेटर चोरा के ऊ कई दिन लुकवले रखलसि आ फेर गाँवे के एगो नादान किसिम के लड़िका का हाथे अपना ओह बिना देखल मरद के पठावल चहलसि. चुपके चुपके कि केहू के पता ना चले. लेकिन स्वेटर ले जाये वाला ऊ लड़िका अतना नादान निकलल कि ओकरा गाँव से बहरी निकले का पहिलही बात खुल गइल कि धाना अपना मरद के कुछ पठावत बिया.

का पठावत बिया ?

उ चरचा गाँव में चिंगारी जइसन फइलल आ शोला बनि गइल. आखिर में हाथ से सी के सीलबन्द कइल ऊ झोरी खोलल गइल त उलटा सीधा इबारत में लिखल एगो चिट्ठी निकलल जवना में सिर्फ “पराननाथ, परनाम. धाना.” लिखल रहे आ ऊ स्वेटर निकलल. लोग के आँखि फइल गइल आ फेर ई बात फइलतो देर ना लागल कि धाना त चोट्टिन निकलल. धाना पढ़ल लिखल त रहल ना. त ई चिट्ठी के लिखल इहो सवाल निकल गइल आ पता चलल कि दर्जा चार में पढ़े वाला एगो लड़िका से धाना लिखववले रहल.

बड़ बुजुर्ग कहलें, “बच्ची हियऽ !” कहि के बात टरबो कइले बाकिर बेइज्जति बहुते भइल धाना के.

बेइज्जति धाना के भइल आ घवाहिल भइल मोहन. दू बात से. एक त ई कि धाना के कोमल मन के केहू ना समुझल, ओकरा मर्म आ प्रीति के पुकार के ना समुझल. उलुटे ओकरा के चोट्टिन घोषित कर दिहल. दोसरे ई कि अगर धाना के अपना मरद खातिर ई स्वेटर पठावही के रहल त ओह बकलोल लौंडा से भिजवावे के का जरुरत रहल. कवनो हुसियार आदमी से भेजीत. हमरा के कहले रहीत. हम जा के दे आइल रहतीं ओकरा मरद के स्वेटर. केहू के पतो ना लागीत आ परेम सनेसा चहुँपियो जाइत.

लेकिन अब त सगरी खेल बिगड़ गइल रहे. ओने धाना बेइज्जत रहल, एने मोहन आहत. गाँव में, जवार में घटल हरबात पर गाना बना देबे वाला मोहना से कुछ उज्जड टाइप के लोग धाना के एह स्वेटर चोरावे वाली घटनो पर गाना बनावे के आग्रह बेर-बेर करिके तंज कसले. एहू बात के मोहना के बहुत खराब लागल आ बेर-बेर लागल. हर बेर ऊ अपना मन के चुप लगा देव. अपना आक्रोश के लगाम लगा देव धाना के आन का खातिर. नाहीं बेबात बात के बतंगड़ बन जाइत आ धाना के नाम उछलीत कि मोहनवा धनवा खातिर लड़ गइल. बहुते बेइज्जति होखीत. से मोहनवा खामोश रहि जाव एइसन तंजबाजन का बाति पर.

ऊ कहल जाला नू कि रात गइल, बात गइल. त धीरे-धीरे इहो बाति बिसर गइल. एक मौसम बीत के दोसर, दोसरका बीत के तिसरका मौसम आ गइल.


फेरु अगिला कड़ी में


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित), आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

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