(भोजपुरी दिशा बोध के पत्रिका के मार्च 2024 अंक प्रकाशित हो गइल बा. ओकरे सम्पादकीय के एहिजा परोसल जात बा. भोजपुरी पर शोध करे वाला लोगन ला ई लेख रेघरियावेे जोग होखी.)
– डॉ. अशोक द्विवेदी
‘लोक’, अपना नैसर्गिक प्रकृति-परिवेश में हर मौसम-खुसहाली आ आफत-बिपत में जइसे जियत-जूझत आइल बा – ओकरा भाषा आ बोली-बानी में जुग के असर आ बदलाव आइल बा. ‘लोक’ अपना जीवन का सँगे अपना भाषा-बोलियो के संस्कार करत आइल बा. शिष्ट- साहित्यिक भाषा का समानान्तर, लोकभाषा अपना वाचिक साहित्य का जरिये, अपना मौलिक सिरजनशीलता का साथ जीवन के सुभाविक आ प्रामाणिक उरेह कइले बा. संस्कृत से पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, अवह्ट्ठ आ हिन्दी तक पहुँचे वाली भाषा का विकास में ‘लोक’ के उरेहल लोक साहित्य में सृजनात्मक शक्ति देखल जा सकेला. शास्त्र के शिष्ट आ क्लिष्ट के पचाइ के लोक सहज आ अपना बोध लायक, बना लेला. राष्ट्रीय विस्तार में इहे ‘लोक’ अपना-अपना क्षेत्र के खासियत का साथ, अपना भाषा के गढ़लस आ ओकर जरिए जीवन से जुड़ल साहित्य आ कला के रूप आ प्रतिमान रचलस. हमनी के क्षेत्र भोजपुरिया लोक क भाषा रचलस, दुसरा क्षेत्र क लोग, अउर-अउर लोकभाषा में आपन उद्गार व्यक्त कइलस.
नागर-सभ्यता ‘लोक’ के जीवन वाला मान-मूल्य के भले प्रभावित कइलस, बाकि लोक अपना मौलिक अभिव्यक्ति आ उरेह से ओकरो के प्रभावित कइलस. लोक अपना उपराजल खेती-बारी, पशु-पालन, मछरी-पालन से अपना साथ-साथ सबकर पेट भरलस अन्न, फूल-फल, दूध-दही सब दिहलस- जवन आगा चल के ब्यवसाय में बदलि गइल- अदला-बदली (विनिमय) से कीने-बेसाहे वाला धन्धा हाट-बजार-मंडी आ बड़का ‘माल’ एह दुनिया में तमाम तरह के असह-दुसह आ विकृति-बिपरीतता आइल, बाकि लोक अपना मानवी सुभाव-संसकार वाली संस्कृति के पुरखन के दिहल परिपाटी मान के जियावत जोगावत चलि आइल. ई बात दोसर बा कि असली पर नकली हावी होत चलि आइल.
शक्ति, सत्ता आ धन अरजन के लोभ-लिप्सा का साथ राजनीति के स्वार्थान्ध चढ़ा-उपरी आ प्रतिस्पर्द्धा में मुख्य आ बहुसंख्यक आबादी वाला किसान आ ओकरा सहजीवन में जिए वाला श्रमिक मजदूर आ बढ़ई-लोहार-कोंहार-नाऊ-बारी सब एक दुसरा से छटकि के अलग-बिलग वर्ग हो गइल. एह बँटवारा आ बिलगाव का पाछा तथाकथित पढ़ुआ-प्रगतिशील राजनीति रहे. शास्त्रमत के चुनौती देबे वाला सहज-सुभाविक आ मानवीय ‘लोकमत’- के उपेक्षा आ दबावे वाली राजनीति के कुटिल चाल आ दुष्चक्र में ‘लोक’ के इयत्ता पर गंभीरता से सोचे बिचारे का एह समय में हमके 1995 में लिखल ”पाती“ का सम्पादकीय ”हमार पन्ना“ के इयाद आइल.
हमके लागल कि ओके फेरू से आप लोगन का सोझा राखि के ‘लोक’ धरोहर पर सोचल बिचारल जाव. आज का दौर में ‘लोक’ से ओतने लिहल आ ओकर आंशिक उपयोग कइल जाता, जवना से बनावटी में ओरिजिनल्टी डालि के बजार में धन आ जस कमाइल जा सके. अजुओ अपना जरि से जुड़ल-सुधी-समझदार लोगन के कमी नइखे. हमार विश्वास बा कि ऊ लोग हमार 1995 वाला सम्पादकी के जरूर पढ़ी आ एह लोक-विमर्श के आगा बढ़ाई-
‘लोक’ आ ओकर संस्कृति -1995
सुने में आवेला कि ‘लोकशास्त्र’ अन्तर्राष्ट्रीय विषय बनि गइल बा. भोजपुरी भाषा के एह पत्रिका के (ई) अंक, लोकसंस्कृति आ लोकसाहित्य पर निकाले का पाछा हमार मंशा खाली अतने बा कि शान्त, आ थिराइल सरोवर में कुछ अंकड़ी फेंकल जाव, जेसे ओमें हलचल होखो. लोग सोचो कि हमनी क संस्कृति साझ आ सहजोग क अइसन संस्कृति रहल, जवन सभके समेटि के सुख-दुःख बँटले रहल. लोगन के जोरे आ बान्हे वाली एह संस्कृति के, एघरी जाति आ वर्ग के स्वार्थ भरल गोलबन्दी घवाहिल कर रहल बा.
एकइसवीं सदी का आहट से अगराइल सत्तानशीन आ ओकर नोकरशाही एह संस्कृति के रिदिरी-छिदिरी करे में कौनो कोर-कसर नइखे उठा रखले. पच्छिमी ‘हाइटेक-विग्यानी-सभ्यता’ का कोख से जनमल ‘हाय-हलो’ वाली ‘जीन्स’ संस्कृति, धरती का रंग रस-गंध में पनपल श्रमजीवी-कृषक- लोकमानस आ लोकधरम के उपेक्षा से देखि के मुँह बिजुकावत बा. केबुल टीबी का रंगीन मायाजाल में फँसल पीढ़ी ‘अरथ’, ‘काम’ आ ‘भोग’ के आपन चरम लक्ष्य मानि चुकल बा. उदारीकरन वाला सरकारी न्योता पर विदेशी कम्पनियन आ ‘ ‘ग्लोबल’- विचारकन क अइसन झोंझ टूटि परल बा कि हमनी क ‘लोक’ आ ओकर सउँसे अस्तित्व अपना समूचा राजपाट सहित उन्हनी का जबड़ा में जाए के तेयार बा.
लोक-मन आ ओकर संस्कृति
हमनी क लोकधर्म ऊपर से चाहे जतना देहवादी आ ललसा भरल लउकत रहे बाकि भितरे भितर ऊ आत्मीय आ मानवीय रहे. एम्मे आत्मा क सहज प्रवाह आ गहराई रहे. एक दोसरा के कामे आवे में, भलमनसाहत आ आत्मीयता झलके. धरती, प्रकृति आ उत्सव प्रधान एह लोकधर्म क विकास नदी, पहाड़, कुआँ, बावड़ी, फेंड़-रुख, नाग, यक्ष, भूत-प्रेत आ अनेक देवी देवतन का पूजा से होत खेती प्रधान भइल. आस्था, विश्वास, अन्धविश्वास, आ भोलापन वाला समाज में, जबकि ज्ञान-विज्ञान आ सभ्यता के ओतना विकास ना भइल रहे- संकट आ आफत में लोक देवता आ देबियन का संगे, जीवन-दाता, आ त्ऱाता पहाड़,
नदी, फेंड़ के पूजा करे के परम्परा बनल, जवन डीह, चउरा-आ बरम तक के पूजे के रेवाज में बदलि गइल. दरअसल रोग, शोकख् दुःख, दलिद्दरपन कूल्हि का निवारन आ सुख, स्वास्थ, समृद्धि खातिर पहिले क मेहनती आ भोलाभाला लोग आपन-आपन नायक, आदर्श, भा देबी देवता खोजि आ मान के पूजल. एही परम्परा आ लोकाचार में कबो खुशी से, कबो मस्ती में, कबो दुख से विहवल होके, कबो थकान मेटावे आ दुःख भुलावे खातिर ओह लोग का कण्ठ से गीत फूटल, पैर थिरके सुरू कइलस, हाथ में मानर, ढोल, झाल, झाँझ आ डफ बाजल. लोक अपना जुझाऊ जीवन के उल्लास से गढ़ लिहलस.जवन वन-संस्कृति धीरे-धीरे किसान-संस्कृति भइल साँच माने में ऊहे लोक-संस्कृति ह. किसान अपना पसेना से अन्न, फल, दूध, साग-भाजी उपराजे वाला, समाज के दाता आ पालक ह. बाकी लोग ओकर आश्रित भा पवनी. ना त ओके छल परपंच से लूटे वाला बिचौलिया डाकू, ठग, चोर.
भारत के संस्कृति किसान-समाज आ ओकरा से जुड़ल बन्हाइल श्रमजीवी आ हुनरमन्द शिल्पी समाज के संस्कृति ह,जवन आपुस के सहयोग, भाईचारा पर कायम रहे. हम खेतिहर किसान क बात करत बानीं. जमींदार आ भूमि-धरन क ना.
खेतिहर समाज में सभ एक दोसरा के पूरक, मददगार आ सहजोगी रहे. खेतिहर किसान, ओकरा संगे काम करे वाला श्रमिक, लोहार, कोंहार, बढ़ई, बुनकर, जोलहा, नाऊ, बारी, धोबी आ घर बनावे वाला राजगीर सब. एह सहभागी श्रम-संस्कृति के बिगारे आ तहस नहस करे वाली संस्कृति क नाँव ह- औद्योगिक आ पूंजीवादी संस्कृति. एमे सामूहिकता क मोल नइखे श्रमजीवी लोक जवन कला रचलस ओमें कुछ मौखिक, कुछ आंगिक, आ कुछ भाव-अभिनय वाला कला रहे.
अपना संवेदना आ अनुभूति का आधार पर, अपना जोग्यता आ चुतराई से ऊ जवन चीझ-बतुस वनवलस ऊ धीरे-धीरे विशेषीकृत होत गइल. पहिले ओके सामन्ती आ जमींदारी प्रवृत्ति कचरलस; बाद में औद्योगिक पूंजीवादी संस्कृति. लोक शिल्पी आ कलाकार त बाद में मशीन आ नया तकनीक वाला उत्पादक-व्यापारी बाजार में गुन आगर होइयो के असहाय होके रहि गइल.
जबले ‘लोक-संस्कृति’ में सहयोगी-श्रमभावना, प्रेम आ पूरकता क भाव रहे, एह देख में कला, शिल्प, साहित्य आ विचार दर्शन कूल्हि क्षेत्र में लोक-गरिमा के खेयाल रहे. एम्में आत्मीयता के सहज प्रवाह रहे, कर्कश, बुद्धि क जटिल रसहीनता आ ठेलमठेल वाली प्रतिस्पर्धा ना रहे. लोकसंस्कृति के वाहक खेतिहर आ ओकरा श्रमिक शिल्पी समाज में, एक दोसरा का सुख-दुःख में शामिल होखे के ललक भलमनसाहत आ कृतज्ञता क भाव रहे. ई आपुसी रिश्ता कवनो फैक्टरी उद्योग के मालिक-मजदूर-नौकरशाह वाला खाली आर्थिक रिश्ता ना रहे. श्रम, लोक, कला, शिल्प का बीचे, जबसे ब्यौपार आ ब्यौपारी आइल, एकर मूल्यांकन आर्थिक आधार पर होखे लागल. पूँजी लगावे आ पूँजी कमाए वाला वर्ग ‘लोक’ का श्रम शिल्प, कारीकारी आ कला के- अपना उत्पादन,
आ ब्यापार के साधन बना लेहलस.कोलोनियल शासन सामन्ती दृष्टि, नागर सभ्यता, पूँजीवादी सोच आ औद्योगिक उत्थान से प्रभावित बेवस्था में जवन धूर्तता, मक्कारी, कुटिलता आ लूट-खसोट पसरल-पनपल ऊ ‘लोक-संस्कृति’ के धीरे-धीरे विकृत करे लागल आ खेतिहर संस्कृति क सबसे बढ़ियाँ देन: सहजीवन, भावात्मक एकता आ पारस्परिक-सहजोग के खतम क दिहलस.
‘कम्यूनिटी’ आ ‘वर्गचेतना’ के पक्षधर आ मजदूर के आर्थिक हित क लड़ाई लड़े वाला लोग प्रगति आक्रान्ति का नशा में-लोकसंस्कृति के वाहक छोट-छोट खेतिहर-किसानन का विशाल आबादी के भुला गइल. राजनीतिक पण्डा लोग ओके जाति, क्षेत्र आ धरम का आधार पर आजु ले बाँटत आ लड़ावत बा.
विज्ञान आ तकनीक का प्रगति से हमरा भा केहू समझदार के कवनो उजुर नइखे. ऊ खूब बढ़ो बाकि ऊ भारत का ‘लोकमन’ आ ‘लोक-धर्म’ से सजल-सँवरल संस्कृति के तहस-नहस जिन करो. धरती, प्रकृति आ विशाल खेतिहर समाज के रउँदि के अगर एकइसवीं सदी अइबो करी त कवना मसरफ के? आजु आधुनिक विज्ञान, तकनीकी, सूचना-संपरक आ नागर-सभ्यता अ क चाहे जतना भौतिक लाभ, गाँवन के मिलल होखे, बाकि गँवई समाज ओकर जवन आत्मिक कीमत चुकवले बा, जवन थाती लुटवले बा, ओके सोचि के हमार मन दुःख से निहँसि गइल बा. केहूँ तरे रोटी, धन, जस आ ताकत उपराजे आ अर्जित करे का धुन में लोकमन आपन भाईचारा, सुख-चैन आ शान्ति खो देले बा. अब ओकर उत्सवधर्मी-संस्कृति, ओकर माटी आ प्राकृतिक संपदा, ओकरा भीतर उल्लास, उमंग आ आत्मीयता नइखे पैदा करत.हमरा मन में ओह पुरान आदमी के आत्मा के उत्सर्ग क कविता जनम ले रहलि बा, जवन धरती के आपन सर्वस्व समझत रहे –
धारऽ हे माँ!
बीया अस अपना गरभ में –
फूटीं हम अँखुवा अइसन.पीहीं हे माँ – दूध
तहरा उमड़त छाती क
तहरे अँचरा में नींन आवो
तहरा गोदी खेलीं
पलीं-बढ़ी आ फेंड़ बनी छायादार छतनार
फूल-फर से लदर-बदर
जुड़बाईं आ खियाईं
कुछ ना दे सकीं त दीं हवा
अपना हरियर पतइन से.हे माँ!
अगर पूरा हो जाय समय
आ हमार कवनो ना रहे अरथ
त तोहरे में समा जाईं-
हो जाईं तोहरे में लय!जमाना तेजी से बदल रहल बा. गँवई संस्कृति आ नगरी संस्कृति के भेदभाव मिटि रहल बा आ एगो मिलल जुलल संस्कृति के रूप उभर रहल बा बाकि आधुनिकता का पुरुसारथ विकृतियन आ सभ्यता का विसंगतियन से भोजपुरिहा संस्कृति के बचावे के होई-ओकरा सादगी, मस्ती, भलमनसाहत आ के सहेजे के परी. एही से ऊ अपना लोकसंस्कृति के परस्पर-पूरकता के भाव के पाई आ आगा बढ़ी. सहकार आ सामूहिकता लोकसंस्कृति आ लोक के ताकत रहल बा.
खुदगर्ज आ सत्तावादी राजनीति का चक्कर में जातिवादी द्वेष उपजावे वाला मुट्ठी भर लोग आजुओ एह लोकमन आ लोक का जीवन-संस्कृति के छिदिर-बिदिर करे में लागल बा, बाकि लोक अपना आस्था आ बिश्वास के बदउलत अपना परम्परा आ विरासत के बचा रहल बा.
- डॉ. अशोक द्विवेदी
संपादक, पाती.
(भोजपुरी दिशा बोध के पत्रिका पाती केे नयका अंक दिसम्बर 23-मार्च 24 सेे साभार)