चरित्र

बरमेश्वर सिंह के लिखल कहानी (पाती के जयन्ती विशेषांक से.)

रामबदन समय के थाह लगावे खातिर आपन माथ उठा के अकास का ओर तकलस. तिनडोरिया माथ पर बा.

अब टाइम हो गइल बा, ऊ सोचलस आ बीड़ी के आखिरी कश खींचत, ऊ उठ के खाड़ हो गइल. अकसरूआ बइठि के समय काटल, सचहूँ पहाड़ कटला लेखा होला. झाड़ी में लुका के बइठल-बइठल ऊ उबिया गइल रहे. ओकर देहो अकड़ि गइल रहे. एह से, खड़ा होखते, पहिले ऊ आपन हाथ-गोड़ झड़लस. फेर ऊ अँगोछा के गलमोछा बाँधि के साँप लेखा गवें-गवें रामभरोसा के मड़ई का ओर सरके लागल.

रात अन्हार बा. हाथो के हाथ देखल आसान नइखे. दिशा साँय-साँय करत बिया. बीच-बीच में, दूर से, आवारा कुकुरन के भूंके के आवाज आ रहल बा. बाकिर रामबदन एह कुल्ही से जइसे बेखबर बा. दरअसल, ऊ अपना धुन में बा. अर्जुन के जइसे खाली मछरी के आँख लउकत रहे, ओइसहीं रामबदन के, एह घड़ी, खाली रामभरोसा के मड़ई लउकत बा.

एही सुरक्षा तटबंध पर आज साँझी खा रामबदन, रामभरोसा के घरवाली के देखले रहे. रामभरोसा के घरवाली, रमरतिया, ओह घड़ी तटबंध पर गोइंठा पाथत रहे.

'अरे, ई त गुदड़ी में लुकाइल हीरा के कनी बा!' - रमरतिया के देखते रामबदन सोचले रहे. संगही ओकरा एहू बात पर अचरज भइल रहे कि रमरतिया के ई गदराइल देह ओकरा नजर से आज तकले ओझल कइसे रहे?

ओने रमरतिया के कउनो सुध-बुध ना! बलुक, ऊ गोइंठा पाथे में अइसन मगन कि ओकरा इहो थाह ना रहे कि गोइंठा पाथे के क्रम में ओकरा उरोजन मे होखे वाला कम्पन रामबदना अइसन बदजात के लगातार निमन्त्रण दे जा रहल बा.

'आज एह कबूतरन के जरूर दाना चुगवाइब!' - रामबदन मने-मन तय कइलस. बाकिर, ऊ आपन मंशा के कार्यरूप दिहित, तलुक पाछा से ओकरा रामभरोसा के आवाज सुनाई पड़ल रहे - '

का हो रामबदन मालिक! अइसे आँख गड़ा के का देख रहल बानीं?'

रामबदन यदि लाज पचावे में माहिर ना रहित त ओकर दशा सेन्ह पर धराइल चोर अस हो गइल रहित. बाकिर लाज पचावे के गुर केहू ओकरे से सीखे. ऊ हँसत हँसत कहलस, 'अरे, तूँ, हम तोहरे के खोजत रहीं हो. असल में हम तोहरा खातिर मुखिया जी के एगो सम्बाद ले आइल बानी.'

रामभरोसा अचकचाइल, 'कइसन सम्बाद ए मालिक?' तब रामबदन ओकरा कान्ह पर आपन हाथ रखत गवें से कहले रहे - 'मुखिया जी के बेटी-दामाद राँची से आइल बाड़े. काल्हुए ऊ लोग लवटि जाई. एहसे तोहरा के पाँच किलो मछरी पहुँचावे के कहले हऽ. मछरी काल्ह सुबहे चाहीं. तू आज रात में जाल लेके चलि जइहऽ, आ जइसे होखे मछरी के इन्तजाम करि दीहऽ.'

'बाकिर, मालिक! आज त हमार जीव ठीक नइखे. भोरहीं से पैखाना हो रहल बा. मिजाज हतो हतो भइल बा.' रामभरोसा निवेदन कइले रहे.

'तोहार जीव के अइसन तइसन!' रामबदन तनी रोष में कहले रहे, 'मुखिया जी के बेटी-दामाद बिना सोन के मछरी खइले चलि जइहें, अइसन ना होई! तू तऽ मुखिया जी के खीस जानते बाड़ऽ?'

रामभरोसा सिटपिटा गइल रहे. ओकरा अस दीन-हीन मल्लाह एह से अधिका आउरी करियो का सकत रहे? हालंकि, ऊ मने-मने इहो तय करि लिहले रहे कि ऊ मछरी पकड़े खातिर ना जाई. काहें कि बेगारियो के एगो हद होला!

रामभरोसा के मड़ई का सामने खाड़ रामबदन एक हालि फेरु आकास का ओर तकलस. तिनडोरिया के स्थिति ओकरा के रात के ढलान पर होखे के संदेश दिहलस.

'अब रामभरोसा मछरी पकड़े खातिर नदी में चलि गइल होखी.' ऊ सोचलस 'जइहें कइसे ना मुखिया जी के फरमान उठा देबे के कूबत ओकरा में कहाँ बा? साले के खाल खींचा जाई, खाल....'

रामबदन के बुझाइल कि मैदान साफ बा. एह से ऊ गवें-गवें आगे बढ़ल आ रामभरोसा के मड़ई के टाटी हटा के, गवें से मड़ई का भीतरी घुसि गइल. मड़ई में घुघ अन्हरिया पसरल बा. तइयो ऊ टो-टो के, जमीन पर सुतल रमरतिया के खोजि लिहलस.

'के बा?' - रामभरोसा के कड़क आवाज से रामबदन अचकचा गइल. 'अरे, ई त रामभरोसवा बा. का ई मछरी पकड़े खातिर ना गइल? हे भगवान, अब त भागे के चाहीं.'

बाकिर रामबदन भागि ना पवलस. ऊ भागित ओह से पहिलहीं रामभरोसा ओकरा के दबोचि लिहलस. आहट पा के रमरतियो जाग गइल. ऊ हड़बड़ाइले रामभरोसा से पुछलस, 'का बा जी?'

'रमबदना बा.' - रामभरोसा अगिया बैताल लेखा कहलस.

'ऐ, ई, मुअना एह राति खा इहाँ का करे आइल बा?'

रमरतिया के अचरज भइल.

'बदनीयती से आइल बा. हम एकर बदनियती काल्हुए बूझि गइल रहीं. साला के खोल दे धोती...' रामभरोसा गरजल.

फेर त रमरतिया उहे कइलस. ऊ रामबदन के धोती खोलि दिहलस. तब रामभरोसा फेरु गरजल - 'अब ए साला के इन्द्री काटि ले. ओने कोना में हँसुआ बा.'

रमरतिया अन्हार में हँसुआ टोइयावत बा. एही बीच रामबदन आपन दाँत रामभरोसा के बाँह पर गड़ा दिहलस. रामभरोसा पीड़ा से चिचिया उठल. एही क्रम में रामबदन पर से ओकर पकड़ ढीला हो गइल. फेर त रामबदन के बढ़िया मौका मिलल. ऊ एगो झटका दिहलस आ अपना के रामभरोसा के चँगुल से छोड़ा के भाग खड़ा भइल.

रामबदन बिल्कुल नंगधड़ंग खरहा अस भागत जा रहल बा. आपाधापी में ओकर जूतो खुलि के रामभरोसा के मड़इये में रहि गइल बा. आखिर, भागत-भागत ऊ पंडित रामअवतार पाण्डेय के दुआर पर जा के गिर पड़ल. ओकरा गिरे के आवाज पा के पंडित जी लालटेन लिहले बाहर निकललें.

पंडित जी लालटेन के अँजोर में रामबदन के पहचनलें. ऊ जोर-जोर से हाँफ रहल बा. ऊपर से ओकर नंग धरंग रुप ....

पंडित जी अचरज से पूछलें - 'का हो जजमान! तोहार ई नागा वाला रूप?'

रामबदन गिड़गिड़ाइल 'पंडित जी इज्जत बचाईं. राउर उपकार हम ता जिनिगी ना भूलाइब.'

पंडित जी के अउरी अचरज भइल, - 'काहे, का भइल जजमान? तोहार ई नंगेसरी रूप? हम कुछ समझलीं ना.'

रामबदन फेर गिड़गिड़ाइल - 'रमभरोसवा हमरा पाछा पड़ल बा. ऊ हमरा के झूठो बदनाम कइल चाहत बा. रउवा हमरा पर रहम करीं, हमरा के बचा लिहीं. राउर बड़ा कृपा होखी.'

ई सब सुनि के पंडित जी अउरी चकरियइलें. उनुका कुछ समझ में ना आइल. ऊ कहलें - 'बाकिर जजमान! ई पुरबारी टोला में चोर चोर के हल्ला कइसन हो रहल बा?'

रामबदन के जइसे कठेया मारि दिहलस. ओकर बोलती बन्द हो गइल. तब पंडित जी फिर पूछलें - 'का जजमान! दाल में कुछ काला बा का?'

'ना पंडित जी ऊ सब बात नइखे. बाकिर बुझात बा कि रामभरोसा किहाँ कवनो चोर पइसल बा!', ऊ अचकचा के बोलल.

अबकी पंडितो जी सोच में पड़ गइलें. बाकिर, ऊ सकुचाते-सकुचात कहलें, 'तब त बड़ा मुश्किल बा, जजमान. हम राउर कवनों मदद ना करि सकीं.'

'ना पंडित जी! अइसन मत कहीं.', रामबदन बीचे में बोललस, 'हम राउर गोड़ पड़त बानीं. हम रउवा के एक जोड़ा पियरी धोती पहिराइब, राउर मुँहो मीठ करब. रउवा नामी कर्मकाण्डी बानी. रउवा जहरो पचा सकीला, हमरा खातिर एगो छोट बात ना पचा सकीँ?'

पंडित जी नव-छव में पड़ गइले. फिर कुछ सोचि के ऊ कहलें - 'अच्छा जजमान! हम तोहरा खातिर ई बात पचा जाइब. तू भरोसा राखऽ..'

पंडित जी के बात से रामबदन के कुछ भरोसा भइल. ऊ आपन दूनो हाथ जोड़ि के कहलस - 'रउवा धन्य बानीं, पंडित जी. साँचो रउवा दयालू बानी. जवार के लोगबाग राउर गुणगान अइसहीं थोड़े करेला?'

पंडित जी गदगद हो गइलें. उनुका होठन पर मुसकी खेले लागल. ऊ कहलें - 'का कहत बाड़ऽ जजमान. जजमानन के भलाई कइल त हमार धरमे बा. अरे जजमान! जिनिगी में का रखल बा? जीते जी जउन जिनिगी केहू के काम आ जाय, उहे जिनिगी सुफल बा.'

पंडित जी के ई संजीवनी बूटी से रामबदन के रगन में फेर से नया खून दउड़े लागल. ऊ धूरि झाड़त उठि के खाड़ हो गइल. फिर ऊ पंडित जी के पांव छू के कहलस - 'काल्ह एक किलो रसगु्ल्ला आ एक जोड़ी पियरी धोती राउर चरण कमल में पहुँच जाई.'

पंडित जी के मुँह से अपने आप निकलि गइल - 'जय हो जजमान.'

ओने रामभरोसा के मड़ई का लगे गाँव वालन के जमघट. खम्-खम् भीड़. जतना मुँह ओतना बात. केहू कहत बा, 'रामबदन के घरे से खींच के अबहीं पीटे के चाहीं.' केहू कहत बा, 'अरे ऊ अबहीँ घरे थोड़े गइल होखी? काल्ह सुबह में देखल जाई. आखिर भागि के ऊ जाई कहाँ?'

एही बीच केहू मुखिया जी का लगे चले के सलाह दिहलस. तब तकला दोसर केहू बोल उठल - 'मुखिया जी का लगे जाके का होई? रमबदना त मुखिया जी के दलाले बा. मुखिया जी त जवाहर रोजगार योजना लेखा एहू केस के पचा जइहें, आ डकारो ना लिहें.'

तलुक भीड़ में से एगो नवही फुसफुसाइल - 'रामबदन ई लुच्चई पहिला बेर थोड़े कइले बाड़े. ऊ कतना बेटी-बहू के इज्जत लूटलें, एकर हिसाब केकरा पाले बा? मुखिया जी ओकरा खिलाफ आज तकले का कइलें? ई केकरा से छिपल बा, कि अब मुखिया जी पर भरोसा कइल जा रहल बा?'

'तब का कइल जाव?' - केहू सवाल करत बा.

'थाना में चलल जाव, अउरी का कइल जाव.' केहू छूटते जवाब दे देत बा.

'थाना में?' सवाल करे वाला के कुछ अचरज होत बा - 'थाना में दरोगा जी के सलामी देबे खातिर पइसा के दिही? रामभरोसा के लगे पइसा थोड़े होई?'

एह सवाल के केहू जवाब ना दिहलस. बाकिर, भीड़ में अबहियो खुसुर-फुसुर हो रहल बा. गाँव के बुढ़ऊ लोगिन के एह बात के दुख बा कि गाँव में अब कइसन-कइसन घटिया चरित्र के आदमी हो गइल बाड़ें. ओने गाँव के नवहिन के गाँव के मउगई पर क्षोभ बा. ओह लोगिन के कहनाम बा कि रामबदन के पकड़ि के अबहीं खाल ना उतारल गइल, त कुछ ना भइल.

एही बीच पंडित राम अवतार पाण्डेय जी उहवाँ आ गइलें. उनुका पर नजर पड़ते सभे के इहे बुझाइल जइसे हनुमान जी संजीवनी बूटी ले के आ गइल बाड़े. एह से उनुके मुँह पर सभे के टकटकी लागि गइल. पंडित जी पूछलें - 'का बात बा हो? का भइल बा? अतना भीड़ काहें लागल बा?'पंडित जी के कुल्हि बात बतावल गइल. तब ऊ कहलें - 'ई त बहुत खराब बा. अइसे त गाँव के बहूऽ-बेटिअन के इज्जत बचावल मुश्किल हो जाई. ना-ना, हमनी का कड़ा रूख अपनावे के चाहीं. तू लोग कुछ सोचले बाड़ऽ, का होखे के चाहीँ?'

'अबहीं त कुछ तय नइखे भइल, पंडित बाबा!' - एगो पुरनियाँ बोलले.

एह पर पंडित जी तपाक से कहलें - 'तय का करे के बा? हमनी का मुखिया जी का लगे चलीं जा. गाँव के हाकिम-हुक्काम त उहे नू बाड़े!'

पंडित जी के एह सुझाव पर गाँव के नवही बिदुक गइले. बाकिर, बुढ़ऊ लोग के चलते उहो लोग के नरमाये के पड़ल आ रामभरोसा के मड़ई का लगे के कुल्हि भीड़ मुखिया जी के दरवाजा का ओरि लड़िया गइल.

रात के ममिला बा. मुखिया जी शयन कक्ष में बाड़े. उनुका के खबर दिहल गइल. बाकिर, उनुका बाहर निकलले में कोई एक घंटा समय लागल. आखिर, ऊ आँख मलत बाहर निकललें. ओही घड़ी मुर्गा बाँग दिहलस. पंडित जी उनुका के सब वृतान्त सुनावत कहलें - 'रामस्वरूप बाबू! रउवा गाँव के हाकिम बानी. बड़ा गम्भीर ममिला बा. तनी ठीक से न्याय होखे के चाहीं.'

मुखिया जी सारा वृतान्त सुनला का बाद बहुत दुखित भइलें. फिर ऊ रामबदन के फौरन पकड़ के ले आवे के आदेश दिहले. आदेश पावते पाँच छव गो नवहा रामबदनके पकड़ लियइले आ मुखिया जी का आगे हाजिर करि दिहलें.

बाकिर, रामबदन के जइसे कउनों चिन्ता ना! एकदम निफिकिर. मस्त मौला लेखा. बाकिर, मुखिया जी के कहे पर ओकरा आपन बयान देबे पड़ल. ऊ कहलस - 'हम मुखिया जी के संवाद ले के काल्ह साँझि खा रामभरोसा के मड़ई गइल रहीं कि मुखिया जी के बेटी-दामाद राँची से आइल बाड़े. उनुका लोगिन के सोन के मछरी खाए के मन बा. एह से मुखिया जी तोहरा के पाँच किलो मछरी पहुँचावे के कहले हऽ. बाकिर हमार बात सुनते रामभरोसा अगिया-बैताल हो गइल. ओही झोंक में ऊ कहलस कि मुखिया-सुखिया के हम कवनो गुलाम नइखी कि फोकट में जब-तब मछरी पहुँचावत रहीं. मुखिया जी किहाँ त पहिलहीं के हमार केतना पइसा बाकी बा. आज तक एको छदामो ना दिहले.'

अतना कहला के बाद रामबदन मुखिया जी का ओर तकलस. फेर ऊ आगे कहलस 'अतना सुनला पर हमरो खीस आ गइल आ हमहूँ राम भरोसा के भला-बुरा कहलीं. फिर ई कहत हम अपना घरे चलि गइलीं कि हमरा जे कहे के रहे से तोहरा के कहि दिहलीं. अब आगे तू जान आ मुखिया जी जानस. रामभरोसा ओही के बदला लेबे खातिर ई कुल्हि कुचक्र रचले बा.'

रामबदन के बयान सुनि लिहला के बाद मुखिया जी रामभरोसा से पूछलें - 'रामबदन तोहरा घर में घूसल रहलें, एकर का सबूत बा?'

रामभरोसा सबूत में रामबदन के धोती आ जूता मुखिया जी के देखावत कहलस - 'सरकार! ई धोती आ जूता रामबदने के बा.'

मुखिया जी पुछलें, 'एकर का सबूत कि ई रामबदने के हऽ?'

अबकी पारी रामभरोसा का बदला पंडित रामअवतार पाण्डेय जी बोलले - 'सबूत का बा, मुखिया जी! इन्हनी पर रामबदन के नाम थोड़े लिखल बा?'

पंडित जी के बात सुन के रामभरोसा अवाक् रहि गइल. तइयो ऊ गाँव वालन का भीड़ का ओर आशा भरल नजर दउड़वलस. बाकिर, इहवाँ आवे से पहिले के कुल्हि शेर अब इहवाँ आ के काहें त सियार लेखा हो गइल बाड़े. रामभरोसा देखलस कि गाँव वालन में से केहू के निगाह काहें त जमीन छोड़ते नइखे. काश! केहू त माथ उठाके ऊपर ताकित!

तब तकला मुखिया जी रामभरोसा से दोसर सवाल करि दिहलें - 'तोहरा अलावहूं केहू अउरी गवाह बा?

'हं सरकार! रमरतिया बिया!' रामभरोसे झट दे कहलस.

'रमरतिया! अरे ऊ त तोहार मेहरारूये बिया. ओकरा के त तू जे सिखइबे, उहे ऊ बोली.' मुखिया जी खँखारत आगे कहलें 'हम पूछत बानी कि तोहरा दूनो बेकत के अलावहूँ केहू गवाह बा?'

अबकी रामभरोसा झुँझला गइल. ऊ कहलसि 'मालिक! अपना घर में केहू गवाह ले के सुतेला का? रउवो त अइसन नाहियें करत होखब?'

रामभरोसा के अतना कहत भइल, आ मुखिया जी के पारा चढ़ गइल. फेर त ऊ अइसन पगलइलें कि छउँकि के रामभरोसा के पकड़ि लिहले आ ओकरा के झकझोरि के जमीन पर पटकि दिहलें. फिर ऊ रामभरोसा पर आपन लात-घूँसा बरसावत कहलें 'साला, तोरा बोलहूँ के सऊर नइखे?'

'गारी मत दीं, मालिक!' रामभरोसा आपन हाथ उठा के एक बार विरोध करे के चहलस. बाकिर, मुखिया जी के लात-घूँसा के प्रहार का आगा ओकर कुछ ना चल सकल आ ऊ मूंज अस थुरात रहल.

जउना घड़ी रामभरोसा मुखिया जी के दुआर पर से धूर झाड़त उठल, ओह घड़ी उहवाँ ओकरा अलावे केहू ना रहे. ऊ आपन माथ उठा के पुरुब का ओर तकलस. ओकरा ईहे बुझाइल कि सुरूज उगे में अबहीं बहुत देर बा.


धनडीहा, भोजपुर 802160


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