भोजपुरी कविता के अतीत आ वर्तमान

डा॰ अशोक द्विवेदी

(एक )भोजपुरी कविताई के सुरूआती दौर

भोजपुरी कविता के प्रारम्भिक दौर के पड़ताल करत खा हमरा सोझा ओकर तीन गो रूप आवत बा - एगो बा सिद्ध, नाथ आ सन्त कबियन क रचल, दूसर लोकजिह्वा आ कंठ से जनमल, हजारन मील ले पहुँचल, मरम छुवे आ बिभोर करे वाला लोकगीतन के थाती आ तिसरका भोजपुरी के सैकड़न परिचित-अपरिचित छपल-अनछपल कबियन क सिरजल कविताई. साँच पूछीं त भोजपुरी कबिता सुरूए से लोकभाषा आ जीवन के कविता रहल बा. एही से ओमें सहजता आ जीवंतता बा. भोजपुड़ी कविता का अतीत के देखला से असन बुझात बा जइसे भोजपुरी बहुत पहिलहीं काब्य-भाषा के दर्जा पा चुकल रहे.

भोजपुरी काव्य-भाषा के आरम्भिक ड़ुप गोरखनाथ के बानी, भरथरी सिद्ध आ नाथ लोग का रचनन में ठेठ आ अनगढ़ रुप से मिलेला. पं दामोदर के 'उक्ति-व्यक्ति प्रकरण' (१२वीं शताब्दी )में ओह घरी के प्रचलितभोजपुरि शब्दन के इस्तेमाल भइल बा. ओसे ई अनुमान लगवला में आसानी होला कि भोजपुरी के कई गो गाथागीत ओही काल में रचाइल होई. बोजपुरी कविता के भाव भूईं सोझाकरे में कबीर, धर्मदास, धरनीदास, बिहार वाला दरियादास, गुलाल साहब, भीखा साहब,आ लक्ष्मी सखी जइसन कवियन क रचनात्मक भागीदारी बहुते साफ बा. मीराबाई के 'हमरे रौरें लागल कइसे छूटे' आ 'कहाँ गइले बछरु, कहाँ गइली गाइ' जइसन लाइन भोजपुरी भाषा के फइलाव के प्रमान बा. सन्त लोग त अपना प्रेमपरक रहस्यवादी भक्ति बावना के उजागर करत खा एह भाषा के सबसे जादा करीबी आ समरथ पावल. कई गो सिद्ध कवियन का कविताई में भोजपुरी के शब्द मिलि जइहें. सन्त कवियन में धरमदास जी त भोजपुरी का लोक-लय में पद रचले बाड़न. एह पुरान कविताई के भाषा में कुछ उदाहरन देखीं -

"अजपा जाप जपीलां गोरख, चीन्हत बिरला कोई."

- गोरखनाथ

"भादो रयनि भयावनि हो, गरजे मेह घहराय,
बिजुरी चमके जियरा ललचे हो, केकर सरन उठ जाय."

- भरथरी

"आठ कुआँ नौ बावड़ी, बा सोरह पनिहार
भरल घइलवा ढरकि गे हो, धनि ठाढ़ पछितात."
xx . . . . . xx
"ननदी जाव रे महलिया, आन बिरना जगाव.
कँवल से भँवरा बिछुड़ल हो, जहँ कोइ न हमार."
xx . . . . . xx
"तलफै बिन बालम मोर जिया
दिन नाहीं चैन, रात नहीं निदिया,
तलफ तलफ कै भौर किया.
तन मन मोर रहँट अभ डोले, सून सेज पर जनम छिया."

- कबीर

सिरिफ कबीरे ना, ओघरी के उत्तर भारत के ढेर संत कबि अपना प्रेम भगति आ निरगुन के रागिननि के सुर देबे खातिर भोजपुरी के अपनावल लोग -

'गल गज मोती कै हार, त दीपक हाथे हो
झमकि के चढ़ेलू अटरिया पुरुष के आगे हो!
सत्त नाम गुन गाइब सत ना डोलाइब हो.
कहै कबी धरमदास अमरपद पाइब हो.'

- धरमदास

'भाई रे जीभ कहलि नहिं जाई
रामरटन को करत निठुराई कूदि चले कुचराई.'

- धरनीदास

'काहे को लगायो सनेहिया हो, अब तुरल ना जाय!
गंग जमुनवां के बिचवा हो बहे झिरहिर नीर
तेहि ठैयां जोरल सनेहिया हो हरि ले गइले पीर.
जोगिया अमर मरे नाहिन हो पुजवल मोरी आस
करम लिखा बर पावल हों, गावे पलटूदास.'

- पलटूदास

'सतगुरु नावल सबद हिंडोलवा, सुनतहिं मन अनुरागल'

- भीखा साहब

'मने मन करीले गुनावल हो, पिया परम कठोर
पाहनो पसीज के हो बहि चलत हिलोर.'

- लक्ष्मी साहब

संत कवि लोग लोकजीवन के चित्र आ प्रतीकन के सार्थक आ प्रसंगानुकूल सन्दर्भन से जोरि के, अलौकिक जीवन के बात कहले बा लोग. अकथ कथ के कहे के, ई कूबत, जनता के बीच इस्तेमाल होखे वाली भाषा के कारन आइल बा. जीवनके नश्वरता आ भक्ति से जुड़ल ओ लोगन के पद आ बानी लौकिक बिम्ब का कारने, सहज बोधगम्य बन सकल. सहज भाव आ संवेदना से सोझे सोझा जुड़ाव का चलते, ओह लोग क पद आ निरगुन जनता में गावल गइल. कबीर तऽ खुल्लमखुल्ला भोजपुरी लोक आ जनभाषा से जुड़ल रहलन -

'बोली हमरी पुरबी हमको लखे न कोय
हमको तो सोई लखे जो पूरब का होय.'

भाव भगति से सनल, निरगुन रंग घोरे वाला कबीर के कई गो पद भोजपुरिये मिलि जाई -

'दुलहिन अंगिया काहे ना धोवाई
बालपने की मैली अंगिया विषय दाग परि जाई.'
xx . . . . . xx
'मन भावेला भगति बिलिनिए के.
पांडे, ऊझा, सुकुल, तिवारी, घंटा बाजे डोमिनिए के.'
xx . . . . . xx
'चंदन काठ कै बनल खटोलना, तापर दुलहिन सूतल हो.
उठ री सखी मोरि माँग सँवारो, दुलहा मोसे रुसल हो.'

भोजपुरी में सबसे जादे जरिगर आ जोरगर साहित्य, लोकसाहित्य के बा. एमें लोकजीवन क हूक, हुलास, संस्कृति के रंग-राग आ आँच देबे वाला साँच का साथ प्रेम आ बिरह के मार्मिक ब्यंजना बा. खेत-खरिहान, सरेह, बाग-बगइचा, कुआँ-बावड़ी, नदी-पोखरा, पहाड़ आ बन का जियतार रुप का साथे, एह साहित्य में मेहरारून के घर-गिरस्थी, स्रम-सपना, हअसल-अगराइल, पीरा आ वेदना कूल्हि के अभिव्यक्ति भरल बा. बरहा, कजरी, चैता, फगुवा, कँहरवा, बारहमासा पुरुषप्रधान प्कृत गीतन का साथे साथ सोहर, झूमर, कजरी, संझा, पराती, जेवनार, जँतसार, छठ, बहुरा, बियाह, संस्कार आ त्यौहारन पर गवाये वाला नारी प्रधान गीत लोकजीवन के सोहगग रुप खड़ा करे में समरथ बाड़न स. देबी-देबतन के मनावल-रिझावन, सरधा-भक्ति, आत्मनिवेदन का संगे-संगे देश आ देश के नायकन के नाँवे गवाये वाला देशभ्कति के गीत हराँसी आ दुख भुलावे वाली करुन-मीठ रागिनी के सँगे हँसी-ठिठोली, उल्लास, बेदना आ शोसन कूल्हि के जियतार चित्र लोकगीतन में उरेहल गइल बा. भोजपुरी कविता के ई लोकरुप लिखितरुप में भले ना होखे, बाकि जनकंठ से स्वतःस्फूर्त भइला का नाते ई लोगन का मन आत्मा में पइसल बा.

प्रेमरस में भीजल, कसक उपजावन, भावप्रधान आ निरगुनिया गीतन के सिरजनहार, 'पुरबी' के जनक महेन्दर मिसिर के गीतन का लय आ खिंचाव में, भाषा के सीमा टूट जात रहे. लोकरंग के लोकमंच देबे वाला कलाकार कवि भिखारी ठाकुर, भोजपुरी कबिताई के ना खाली दूर डूर ले फइलवले, बलुक आन्दोलन का घरी त बाबू रघुबीरनारायन के 'बटोहिया' आ मनोरंजन बाबू के 'फिरंगिया' कबिता बाहरो के लोग का कंठ में रच-बस गइल रहे. 'बिसराम' के बिरहा पूर्वाञ्चल में बिरहियन के थाती बनल त हरा डोम के कविता 'अछूत के शिकायत' ओह समय के दलित चेतना के साखी बनल.

भोजपुरी कबिता के भीति उठावे में महेन्द्र शास्त्री, रघुबीरनारायन, मनोरंजन बाबू, दण्डिस्वामी विमलानन्द, परीक्षण मिश्र, पाण्डे नर्मदेश्वर सहाय, डा॰ रामविचार पाण्डेय, प्रसिद्धनारायण सिंह, अवधेन्द्र नारायण, मोती बी॰ए॰, जगदीश ओझा 'सुन्दर', प्रभुनाथ मिश्र, चन्द्रशेखर मिश्र, रामजियावन दास 'बावला' आदि कई लोग जीवे-जंग रे लागल रहे. सुतंत्रता आन्दोलन आ ओकरा बाद ले भोजपुरी कबिता क जेवन रुप देखे के मिलत बा, ओमे राष्ट्रीय चेतना का अलावा अनुभूति का कोना-अँतरा ले भोजपुरी भाषा के सहज पइसार आ बेंवत के देखत बनत बा. गँवई जीवन आ प्रकृति एह समय का कबिताई के आलंब आ प्रतिपाद्य रहल बा.

देखल जाय तऽ भोजपुरी कविता में रोमाण्टिक भावधारा के लमहर काल ले गति मिलल बा, बाकि प्रगतिशील बिचार आ शोसित-पीड़ित लोगन के संघर्षो आ ब्यथा कथा के जियतार उरेह भइल बा. मोती बी॰ए॰, रामविचार पाण्डेय, अनिरुद्ध, अर्जुन सिंह, 'अशान्त', रामजीवन दास 'बावला', सतीश्वर सहाय 'सतीश', सुन्दर जी, रामनाथ पाठक 'प्रणयी', रामदेव द्विवेदी 'अलमस्त' आ 'अनुरागी' के मुक्तक आ गीत रचनन आदि के अलावा प्रबन्ध काव्य, खण्ड काव्य, सॉनेट आ गजल आदि काव्य विधा के समृद्ध रुप देखे मिली. साँच पूछीं त भोजपुरी कविता अपना विकासेक्रम में बहुरंगी आ शिल्प के विविधता में सिरजित भइल बिया. भाव आ बोध का दिसाईं, हालांकि ओमें आधुनिकता के प्रभाव कम्मे लउकी, बाकि वर्तमान का जथारथ से ऊ किनारा नइखे कसले. ई बात दूसर बा कि ओम्में गँवई जीवन के गहिर बोध आ संपृक्ति बेसी लउकी.

जदि सुरुआत प्रबन्ध काव्य आ खण्ड काव्य से कइल जाय त देखे के मिली कि भोजपुरी अँचरा में 'सारंगा-सदाबृज', 'बिहुला बिलाप', 'सोरठी-बृजभार', 'लोरिक', 'आल्हा', गोपीचन, भरथरी, कुवंर विजयमल, आ 'नयकवा बंजारा' जइसन लोकप्रिय कथाकाव्य के एगो कड़ी मिली. प्रबंध काव्य के बीया त आदिकाल के 'पुहुपावती' में मिल जाई, बाकि 'बलिदानी बलिया' (१९५४) से आरम्भ मानल जा सकेला. सतवाँ दशक का बाद भोजपुरी में कई गो प्रबन्ध काव्य प्रकाशित भइलन स. हरेन्द्रदेव नारायण के 'कुँवर सिंह' रामबचन शास्त्री 'अंजोर' के 'किरनमयी', सर्वदेव तिवारी के 'कालजयी कुँवर सिंह', चन्द्रधर पांडेय 'कमल' के 'नारायण', बिमलानंद सरस्वती के 'बउधायन', अविनाश चन्द्र विद्यार्थी के 'सेवकायन', कुबोध जी के 'के' आ आचार्य गणेशदत्त 'किरण' के 'महाभारत' आदि भोजपुरि प्रबंध काव्य के समृद्धि के सूचक बा.

एही तर खण्डकाव्य भोजपुरी में ढेर लिखाइल बा बाकि प्रसंगबस ओम्मे से कुछ क चरचा जरूरी बुझाता. एम्मे 'कुणाल'(रामबचनलाल), 'वीर बाबू कुँअर सिंह'(कमला प्रसाद 'बिप्र'), 'रुक जा बदरा'(मधुकर सिंह), 'सुदामा यात्रा' आ 'श्याम'(दूढ़नाथ शर्मा), 'शक्ति साधना' तथा 'द्रौपदी'(बनवासी), 'कौशिकायन'(अविनाशचन्द्र 'विद्यार्थी'),'सीता के लाल'(कुंज बिहारी 'कुंज'), 'सत्य हरिश्चन्द्र'(सर्वेन्द्रपति त्रिपाठी), 'राधामंगल'(विश्वनाथ प्रसाद), 'उर्वशी'(सत्यनारायण सौरभ), 'सीता स्वयंवर'(रामबृक्ष राय 'विधुर'), 'लवकुश'(तारकेश्वर 'राही'), 'पाहुर'(रामबचन शास्त्री 'अँजोर'), आदि के रेघरियावल जा सकेला. भोजपुरी प्रबन्ध काव्यन में काव्यशास्त्री दीठि से भलहीं छुट्टापन भा स्वच्छन्दता लउकत होखे, बाकि ओमे भाव आ बिचार के बहुत बढ़िया समायोजन भइल बा! भोजपुरी के कई गो प्रबन्ध काव्य आ खण्डकाव्य पौराणिक चरित्र आ लोक आस्था आ विश्वास केकेन्द्र रहल लोक चरित्रन पर रचल गइल बाड़न स, जइसे राम, कृष्ण, हनुमान, लव-कुश, वीर कुँअर सिंह. राम-कृष्ण के कथा, रामायन, महाभारत का प्रति लोगन के प्रेम आ स्वतंत्रता आन्दोलन के चर्चित नायक वीर कुँअर सिंह के वीरता भोजपुरी प्रबन्ध काव्य रचवइयन के ढेर खिंचले बिया. भावबोध, विचार संपन्नता आ काव्य भाष का दिसाईं 'बउधायन', 'सेवकायन', 'कुँवर सिंह' आ 'महाभारत' दमगर आ जिउगर बा.

अपना देबी देवता, लोक नायक आ आदर्श पुरुखन के प्रति भिजपुरिहन क सम्मान देबे के निराले अंदाज बा. प्रेम, प्रकृति आ मानवता के समरपित, अदम्य जिजिविषा आ साहस से भरल भोजपुरिहन क ईहे खासियत भोजपुरी कवितो में झलकेले. दरअसल भोजपुरी कविता लोक-अनुभुतियन आ ओकरे कल्पना क उड़ान क कविता हऽ. किसान, मजदूर, मेहरारु एह अनुभूतियन के वाहन हउवन. घर-गिरस्थी, खेत-खरिहान, नदी-पहाड़-जंगल एकर क्षेत्र. जिनिगी के संवेदना का स्तर पर जिये, अनुभव करे आ मरम छुवे वाली करूण-मीठ रागिनी में ओकरे ब्यक्त करे, उकेरे-उरेहे आ ब्यंजित करे में भोजपुरी के जवाब नइखे. सबसे बड़ खासियत बा कहे में सहजता आ सफगोई. बे मोलम्मा आ पालिस के. घर में कैद औरतके भितरे भीतरे कुँहकत-तलफत जिनिगी आ ओकरा बिवश स्वर के महेन्द्र शास्त्री सहजता से उकेरत बाड़न -

पसुओ से बाउर बनवलऽ हो, हाय पसुओ से!
दुलुम भइल हवा-पानी, कैदी होके कलपतानी
जियते नरक भोगवलऽ हो, हाय पसुओ से!

लोक धुनन पर गवाये जोग गीतन में महेन्द्र शास्त्री मर्मस्पर्श करे वाली करुना आ पीर भरले बाड़न. उनका रचनाधर्मिता में अनुभूति त प्रामाणिक बा, बाकि अभिव्यक्ति सपाट बा. किसान आ खेतिहर मजूर के स्रम आ उन्हन के आपुसी भावना के रेघरियावत, ऊ प्रगतिशील कविता का नियरा पहुँच जात बाड़न. हाथ पर हाथ धइले, मन मरले कुछ होखे उजियाये के नइखे. उनका उदबोधन में ई जथारथ सजीवे उतरि आवत बा किजोतलो का बाद खेत क कोना परतिये रहि जाला -

करवा पर बा करवा हो, तनी दीहऽ कुदार.
कोना ना लागल हरवा हो, तनी दीहऽ कुदार.

भोजपुरी भाषा अपना निठाठ शब्दन का ताकत आ ब्यंजक शक्ति के कारन, कवियन के ब्यंगात्मक उक्तियन में अउर प्रभावीहो जाले. सामाजिक विसंगितयन आ सत्तासीन राजनीतिज्ञन पर प्रसिद्ध नारायण सिंह बड़ा सहजता से ब्यंग्य करत बाड़न. एमे भाषा के व्यंजकता देखीं -

हुकूमत का हाथीनियर दाँत दूगो,
देखावे के दूसर चबावे के दूसर.
इ कइसन बा जादू, इ कइसन बा टोना,
लिखल जाता दूसर पढ़ल जाता दूसर.
कहल जाता दूसर, कइल जाता दूसर.


(लमहर लेख बा. धीरे धीरे जोड़ल जात रही. आवत जात रहीं.- सम्पादक)