जमाना भइल भारी

डा॰कमल किशोर सिंह

ए घरवा वाली. जमाना भइल भारी.
केकरा के दोष दिहीं, केकरा के गारी.
पता चलत नइखे, जाईं कवना दुआरी?
ए घरवा वाली. जमाना भइल भारी.

बबुआ के पढ़वनी, खाई सतुआ खेसारी,
नउकरी उनका मिले नाहीं, चले ना कुदारी.
जतना कमइनीं ओतने भइनीं भिखारी,
लागऽता कि बइठ जाई, सभ खेती बाड़ी.

बबुनी के पढ़वनी. कइनीं कवन होशियारी,
जोग्य बर खातिर कइसे पइसा जोगाड़ीं.
बढ़ल महँगाई ,आउर बढ़ल चोरबजारी,
तोंदवा पर ताव देत, बइठल बेवपारी.

नेता बनि घूमत बाड़ें अनपढ़ अनाड़ी,
पधलो लोखल लोग भइलें भ्रष्ट्राचारी.
बगुला भगत जइसन सब खद्दरधारी,
गिद्ध जइसन नोंचत बाड़ें अफसर करमचारी.

जात पाँत बढ़ गइल आ बढ़ल मारा मारी.
मने मने खुश नेता, धरमाधिकारी.
सोंचि के दुखित भइलें कमल बिहारी,
कि कब तक देशवा के चली अइसे गाड़ी.

दोषी बाड़े जनता कि दोष सरकारी?
दोष बा दवा के कि बिकत बा बेमारी?
ए घरवाली, जमाना भइल भारी.
केकरा के दोष दिहीं, केकरा के गारी.


रिवरहेड, न्यूयार्क