आवऽ लवटि चलीं जा!

डा॰ अशोक द्विवेदी के लिखल उपन्यास अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित.

पहिलका कड़ी

भाई का डंटला आ झिरिकला से गंगाजी के सिवान छूटल त बीरा बेचैन होके अनासो गांव चौगोठत फिरसु. एने ओने डँउड़िआइ के बगइचा में फेंड़ा तर बइठि जासु आ सोचल करसु. सोचसु का, खाली उड़सु. कल्पना का महाकाश में बिना सोचल-समझल उड़सु. एह उड़अन में कब पाछा से आके पनवा शामिल हो जाव, उनके पता ना चले. आम के मोजरि दनात रहे, ओकर पगली गंध बीरा के न जाने कवन मादक निसा में गोति-गोति देव. पनवा के दमकत गोराई, ललछौंही मोहखरि, लसोरि तिरछी चितवन आ गदराइल देहिं, रहि-रहि के उनके अपना ओर घींचे लागे. रहि-रहि के उनका मन परि जाव ऊ इनार आ पियास लागि जाव. कंठ सूखि के अगियाये लागे त उठि के घरे चलि देसु.

ई ना रहे जे पनवा चैन से होखे. बैखरा लेले रहे ओकरा के. बीरा के पाम्ही आवत गोल चेहरा, गोर गेंठल देंहि, पियासल आंखि, आ लकाधुर बोली रहि-रहि के ओकरा के बहरा दउरा देव, बाकिर बीरा ना लउकसु. रेता में उछरि के गिरल मछरी लेखा तलफत पनवा के सन्तोख होखो त कइसे? बीरा कवनो गांव-घर के त रहलन ना.

बलुआ से थोरिके दूर बीरा के गाँव रहे सिमरनपुर. बाप-मतारी रहे ना. छोट्टे पर से बड़ भाई आ भउजाई के ऊ बाप-मतारी का रूप में देखत आइल रहलन. एगो बहुत छोट गिरहस्त रहे लोग ऊ. दू बिगहा के खेत, खपड़ा के घर, एगो बैल आ एगो भइंसि - इहे उनकर पूंजी रहे. बीरा दुसरा दर्जा का बाद पढ़बे ना कइलन. अइसन ना कि उनकर मन पढ़े में ना लगल. घर के परिस्थितिए अइसन रहे. भउजाई भइंसि चरावे केकह देसू, खेत में भाई के खाना-खेमटाव ले जाये के कहि देसु आ एही तर धीरे धीरे अपनहीं पढ़ाई छुटि गइल.

जवानी के उठान आ चमक अईसन ह कि करियो कलूठ आ लंगड़ो-लूल सुघ्घर आ भरल-पूरल लागे लागेला! फेर त बीरा के पुछहीं के ना रहे - गेहुँवा रंग, छरहर-कसरती देंहि. अपना उमिर का लड़िकन में सबसे पनिगर आ चल्हांक. नवहा लड़िकन का संगे गंगाजी का सरेंही ले भइंसि घुमावत, कबड्डी-चिक्का खेलत बीरा के दिन बड़ा ढंग से बीतत रहे. बलुआ गाँव से होत, गंगाजी का तीर ले के आवाजाही में, पता न कब उनकर आमना-सामना पनवा से भइल आ कब उनका भीतर प्रेम के पातर स्रोत फूटल, केहू ना जानल. सोता से झरना बनल तब्बो यार-दोस्त ना समुझलन स, बाकिर उहे प्रेम जब नदी के लहरन अस लहरे आ उमड़े लागल त सभे जानि गइल.

नदी के बेग आ बहाव के रोके खातिर बीरा के घर-पलिवार आ पनवा के खनदान हुमाच बान्हि के परि गइल. बान्हे-छान्हे के कवन तजोग ना भइल, बाकि दू पाटन का बीच में बहे वाली नदी भला एक्के जगहा कइसे रुकि जाइत? भाई भउजाई के दिन-रात हूँसल-डाँटल आ धिरावल बीरा के बहुत खराब लागल रहे - अतना खराब कि ओघरी ऊ लोग. उनकर सबसे बड़ दुश्मन बुझाए लागल. चार पांच दिन से बेचैन होके डँउड़ियाइल फिरत बीरा मन के जतने आवेंक में करे के कोसिस करसु, ऊ अमान बछरु लेखा कूल्हि छान्ह पगहा तुरा के भागे लागे. बीरा कतनो महँटियावस, कतनो भुलवावस बाकि मन में रचल-बसल पनवा के खिंचाव उनके कल से ना रहे देव. जहाँ कहीं एकन्ता-अकेल बइठस उनके पनवा केमिलला के एक-ए-गो घटना मन परे लागे.