प्रमोशन

अशोक द्विवेदी

तपेसर सिंह के फेरू बड़ा ग्लानि भइल, जब उनुका अंडर में काम करे वाला, उनुके सिखावल दू गो अउर नवहा प्रोमोट होके चल गइलन सऽ. ई तिसरा परमोशन रहे.

"अरे हमार कहल मानीं सर! रउरो अब एह आदर्शवाद के छोड़ीं. साहेब-सुब्बा किहाँ अइले-गइले कुछ होला ! "प्रवीर जात-जात उनसे कहले रहे. तपेसर सिंह के ओकर कहल बात रहि-रहि उसुकावत रहो बाकिर ऊ सोचसु .... "अरे तीन-चार साल त अउरी बाँचल बा, अब अगर साहेब कोहाँ चलियो जाइब त का हो जाई ? ईहे नू कि तनी स्केल बदल जाई, डीए बढ़ि जाई आ अफसर ग्रेड में रिटायरमेंट मिली." ई उधेड़बुन कई महीना जारी रहे, बाकिर ऊ निरनय ना क पावसु.

उपरझटके, एघरी फेर परमोशन के चर्चा उठल रहें आ तपेसर सिंह का भीतर उथल-पुथल फेर चालू हो गइल रहे. एकदिन ऊ सोचलन ....

आखिर का लेके जाईं? आ जाईं त का बतियाईं? झुठिया जी साहेब, हँ साहेब, .....हुँह.

आखिरस एक दिन का जाने का सोच के बजारे गइलन. खादी भण्डार से एगो सिलिक के साड़ी किनलन आ मिठाई का दुकान से दू किलो बढ़िया मिठाई पैक करवलन आ साँझि होत-होत साहेब का बंगला पर पहुँचिये गइलन.

उमेद का उल्टा, साहेब बड़ा अपनाइत से मिललन. कुशल समाचार पूछलन. फिर शिकाइती ढंग से कहलन, पता ना कहाँ रहेलऽ तपेसर सिंह, तूँ कबहूँ ना आवेलऽ! जमाना कहाँ से कहाँ चल गइल आ एगो तूँ बाड़ऽ. खैर छोड़ऽ, कइसे सललऽ हा? आ ई हाथ में पैकेट कइसन हऽ?

एक छिनखातिर तपेसर सिंह चकरइलन फेर उनका भीतर के स्वाभिमान अँइठे लागल. ऊ कुछ सोचलन,आ अपना के भीतरे-भीतर दाबत कहलन, सर बजार से सीधे इहवें चलि अइनि हँ. एम्मे एगो सिलिक के साड़ी आ मिठाई वगैरह बा, मेहरारू लड़िकन खातिर. दरअसल साहेब हमके गाँवे जाए खातिर एक महीना के छुट्टी चाहीं.

साहब अवाक्! झेंपत कहलन, "हँ हँ काहे ना? काल्ह अप्लिकेशन फारवड करा दीहऽ बाकिर..."

का साहेब? तपेसर तपाक से पूछलन.

"अरे भाई अगिले महीना में प्रमोशन ड्यू बा. तूँ इन्टरव्यू ना देबऽ का? "साहब कुछ इयाद पारत कहलन.

छोड़ीं साहेब! अब का करब परमोशन लेके? कटि जाई अइसहीं दू-तीन साल! आ तपेसर उठि के हाथ जोड़त, बँगला से बहरिया गइलन. उनकर छाती बिजयी भाव में फूल गइल रहे. आज अनजाने, उनका सँगे होखत रहे वाला अन्याय के, माकूल जवाब, साहेब के दिया गइल रहे.