आवऽ लवटि चलीं जा! -3

डा॰ अशोक द्विवेदी के लिखल उपन्यास अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित हो रहल बा.

तीसरका कड़ी

फगुवा बीतल त बीरा के गंगा के कछार घोरवठे क सूर चढ़ल. उ रोज खाइ-पी के निकल जासु. हरियरी से जीउ उचटे त बलुआ गाँव के पकवा इनार पर आके खड़ा हो जासु. पूरब का ओसारा में बइठल पनवा के जइसे एकर पूरा पता रहे कि बीरा के पानी पिए के ईहे जूनह. उ आधा घंटा पहिलहीं से ओसारा में आके कुछ न कुछ काम-धंधा सुरु क देव.

अक्सर खँभिया का ओर बीरा के आवत देखि के पनवा के अगोरत मन उछरे लागे, बाकि ऊ जान बूझि के मूड़ी गोतले रहे. बीरा का खँखारते ओकर मूड़ी उठे आ नजर मिलते बीरा सिटपिटा जासु. आखिर लजाते लजात बीरा के कहहीं के परि जाव, 'तनी पानी पियइबू हो?' पनवा एक हालि तरेर के देखे फेरु बनावटी खीसि में बोले, 'तहरा रोज पियासे लागल रहेला?' फेरू ऊ भितरी से डोर बाल्टी के लेके छने भर में बहरा निकलि आवे.

ओकरा इनार पर पहुँचत-पहुँचत किसिम-किसिम के बिचार बीरा का मन में फफने लागे. कबो पनवा के साँचा में ढारल सुघ्घर देंहि पर, कबो ओकरा बेफिकिर जवानी पर, कबो ओकरा जोमिआइल चाल पर आ कबो ओकरा माँगि में भरल सेनुर पर. बाकिर विचार के बवंडर गुर्चिआए का पहिलहीं छिटा जाव. 'काहो, पानी पियबऽ कि हम जाईं?' आ जब चिरुआ में पानी गिरे लागे तब बीरा के आंखि अनासो निहुरल पनवा के गरदन के नीचा टँगा जाव. कनपटी दहके लागऽ सन आ पियास गहिर होत चलि जाव. जब बाल्टी के पानी ओरा जाव त बीरा के करेजा जुड़ाए का बदला अउरु धधके लागे.

बाल्टी लटकावत पनवा अगराइ के पूछे, 'का हो अभिन तोहार पियास ना गइल?' बीरा अतिरिपित नियर मूड़ी डोला देसु. का जाने काहें उनुकर ओंतरे ताकि के मूड़ी डोलावते पनवाके देंहि चिउँटि रेंगे शुरु क द सन. ऊ भितरे-भितर कसमसाइ के रहि जाव. ओफ्फ नजरि ह कि बान........ . थिराइलो पानी हँढोरि देले बीरा के इ नजरि. पनवा कुछ देर त सम्मोहन में बन्हाइल रहे, बाकि टोला-महल्ला के सुधि अवते ओकर सम्मोहन टूटि जाव. ऊ जल्दी जल्दी भरल बाल्टी उठावे, डोर लपेटे आ तिरछे ताकत घूमि के चल देव.

बीरा जगहे प खड़ा हहरत ताकसु - आ तबले ताकति रहि जासु जबले पनवा अपना ओसारा से होत घर में ना हेलि जाव.