आवऽ लवटि चलीं जा! -4

डा॰ अशोक द्विवेदी के लिखल उपन्यास अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित हो रहल बा.

चउथका कड़ी

ओह दिन बीरा जब कान्हे गमछा आ लउर लिहले अचके में आके इनार पर खाड़ भइलन, त भईंस के लेहना गोतत पनवा के आंखि में एगो खास किसिम के चमक उठल, मन पोरसन उछरि गइल. अगर लोक-लाज के भय ना रहित त ऊ धवरि के बीरा के अँकवारी में भरि लेइत.

बीरा आंखिये-आंखी पुछलन, 'का हो का हाल बा?' पनवा आंखिये-आंखी कहलस, 'खूब पूछ तारऽ. कुल्हि करम त क घललऽ.' फेर बिना कुछ बोलल बतियावल ऊहे बालंटी, ऊहे डोर, ऊहे इनार. पानी पियत खान बीरा के ओहीं तरे निहारल आ पनवा के सकुचाइ के अपना भीतर बटुराइल......फेर थथमि के आंखि तरेरल.

आजुबिना कुछ पुछले बीरा के बोली फूटल - 'तहार गुलामियो बजइतीं, अगर नोकरी मिलि जाइत?' पनवा अचकचा के तकलस, झूठही खिसिअइला के भाव देखवलस आ मुस्कियाइ के बल्टी इनार में छोड़ि दिहलस. बल्टी सरसरात नीचे चलि गइल. ओने बाल्टी बुड़बुड़ाइल एने पनवा के बोली सुनाइल, 'अतना बरियार करेजा बा तोहार? दम बा त बाबू से बतियावऽ!'

बीरा के बुझाइल कि इ चुनौती पनवा उनका पौरुष आ साहस के दे तिया. नेह के निश्चय बड़ा दृढ़ होला. तब अउरू, जब जवानी में जोमहोखे. ऊ दृढ़ होके कहलन, 'अब त समनहीं आई. बाकिर अतने डर बा कि आगि लहकला का पहिलहीं तु पानी जिन छोड़ि दीहऽ.'

पनवा बाल्टी के बान्हन खोलत रहे. ओकर मन कइल जे खोलि के कहि देव. कहि देव कि जरुरत परी त हम तहरा खातिर इ घर दुआर महतारी-बाप कुल्हि छोड़ देब. बाकिर ऊ अतने कहलस, 'दोसरा के सिच्छा देबे का पहिले अपना के अजमावऽ!' अतने में रामअंजोर चौधरी दुआरे आ गइलन. बीरा इनारे भइल गोड़ लगलन, 'पायँ लागी बाबा!' चउधुर कुछ कहितन एकरा पहिलहीं पनवा बल्टी लेले निहुर गइल, 'ल पियऽ!' बीरा फेरु पानी पिए लगलन.

चलत खान चउधुर बोलवलन, 'सुनि रे बचवा!' पहिले त बीरा डेराइ गइलन. धीरे धीरे फाल डालत, सोचत-गुनत चल दिहलन. नियराँ गइला पर खुलासा भइल, 'बड़ा फजीहत हो गइल बा एघरी. अब ई खेती के लउँजार संभरत नइखे. बुढ़ापा का कारन हम सकि नइखीं पावत. कवनो चरवाहा नइखन सँ भेटात. बीरा, तहरा किहाँ कवनो भेटइहन स?' जवने रोगिया के भावे तवने वैदा फुरमावे! बीरा के मन माँगल इनाम मिल गइल. बाकि बड़ा अस्थिराहे कहलन, 'बाबा हम परसों ले कुछ जोगाड़ बान्हब! एक दू आदमी बा, सवाच के बताइब!'

गाँव का नियरा पहुँचत-पहुँचत बीरा का दिमाग में पूरा योजना तैयार हो गइल रहे. 'हमहीं चौधरी किहाँ चरवाही करब!' बीरा जइसे पूरा तय क के बुदबुदइलन. उनका आँखि मे पनवा समाइल रहे. हर घरी ओकरा के देखला आ नगीच पहुँचला के ललक उनके बेकल कइले रहे. भगवान सहाय बाड़न तब्बे न चउधरी का मुंह से ई बात निकसल हऽ. उनका भीतर हलचलो होत रहे. ऊ डेरासु त इहे सोचि के, कि पनवा बियुहती ह. ओकर खियाल उनके छोड़ देबे के चाहीं. बाकिर ओकरे बोली..... उ चुनौती. उनुका बुझाइल जे पनवा मेहना मार तिया - 'ईहे मरद बनल रहलऽ हा. प्रेम हँसी ठठ्ठा ना हऽ. करेजा के पड़ा पोढ़ करे के परी. केहू का क ली? मरद बाड़ऽ त आवऽ तलवार का धार प चलि के देखावऽ. प्रेम कइले बाड़ऽ त भागत काहें बाड़ऽ? ताल ठोंकि के मैदान में कूदऽ!'