कइसे रहब, तोर बिन ए संघतिया
 

-मंतोष कुमार सिंह
 

जात रहनी बहरा, रुआंसु भइल अंखिया
कइसे रहब, तोर बिन ए संघतिया।।

माई छुटली, बाप अउरी घरवा दुअरिया
जिनगी अन्हार भइल, गइल अंजोरिया
जिया में डसेला, परदेस वाली रतिया
कइसे रहब, तोर बिन ए संघतिया।।

गंउवा के खेतवा में, बइठे ना कोयलिया
सरसो ना जौ, गेंहू, लौउके ना बलिया
चारू ओर पसरल बा, दिन में अन्हरिया
कइसे रहब, तोर बिन ए संघतिया।।

शादी-बियाह में लौउके नाहीं डोली
छठ, जिऊतिया, तीज होखे नाहीं होली
फुरसत ना बा इंहा, बाटे ना बटोहिया
कइसे रहब, तोर बिन ए संघतिया।।

मन नाहीं लागताऽ, लिखऽतानी पतिया
हमके भेजा दऽ यार, गंवई से गडिय़ा
अब ना सहाताऽ, परदेस में दरदिया
कइसे रहब, तोर बिन ए संघतिया।।


लेखक पत्रकार अउरी गीतकार हईं
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