जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

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बीच बाजार में

उ जब घूँघट उठवनी

केतनन के आह निकलल

कुछ लोग नतमस्तक भईल

केहू केहू खुस भईल

बाकि कुछ के

आवाज बिला गईल

 

आँख पथराइल

दिनही रात के भान

पानी पडल कई घइला

काँप गइल रोंआ रोंआ

थरहरी हिलल

थथमथा गइल कुछ के पाँव

 

घूँघट रहे इज्जत

ओकर उतरल

कीरा के केंचुर लेखा

ओकरहीं खाति आफत भइल

उहो जिनगी में

फफनाइल नदी लेखा

कुल्हिये भसा ले जाई का ?

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कुछ त कहीं......

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