– रामरक्षा मिश्र विमल
शहर में घीव के दीया बराता रोज कुछ दिन से
सपन के धान आ गेहूँ बोआता रोज कुछ दिन से
जहाँ सूई ढुकल ना खूब हुमचल लोग बरिसन ले
उहाँ जबरन ढुकावल फार जाता रोज कुछ दिन से
छिहत्तर बेर जुठियवलसि बकरिया पोखरा के जल
गते मुस्कात बघवा झाँकि जाता रोज कुछ दिन से
बिरह में रोज तिल तिल के मरेली जानकी लंका
सुपनखा–मन लहसि के हरियराता रोज कुछ दिन से
कइल बदले के जे गलती हवा के रुख बगइचा में
बतावल लोग के औकात जाता रोज कुछ दिन से
महीनन से भइल ना भोर इहँवा हाय रे मौसम
‘विमल’ का आस में जिनिगी जियाता रोज कुछ दिन से
धन्यवाद.
विमल जी के लेखन मे गांव के माटी के आत्मा विराजे ला।जंहा सोच मे शुचिता होला े वहा देवता के बास होला।
Bohut acha laga padke… dhanyawad sir