– डा0 अशोक द्विवेदी
हुक्मरानन का खुशी पर फेरु मिट जाई समाज
अपना अपना घर का आगा, खोन ली खाई समाज ।
कर चुकल बा आदमी तय सफर लाखन कोस के
घूम फिर के कुछ समय में, का उहें आई समाज ?
जुल्म से भा जबरजस्ती ना बसे बस्ती कहीं
बसी त फिर उजड़ जाई फेरु मुरझाई समाज ॥
राख,धूआँ, धूरि में बिलखी अगर इन्सानियत
जीत के भी राज कवनो, जीत ना पाई समाज ॥
उठल-बइठल सँगे खाइल पियल,रोवल-हँसल जे
पहिले खाई गैर के, फिर अपने के खाई समाज ॥
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