– डा0 अशोक द्विवेदी
सुतल बा जागि के जे, ओके का जगइबऽ तूँ ?
घीव गोंइठा में भला कतना ले सुखइबऽ तूँ ?
बनल बा बेंग इहाँ कतने लोग कुइंयाँ के
नदी, तलाब, समुन्दर के, का देखइबऽ तूँ ।
बा जरतपन के आगि पेट में सुनुगत कबसे
उ अगर लहक उठल, कइसे फिर बुतइबऽ तूँ ?
उड़े के ढेर बा, पँखियो तहार बा कतरल
कवन ठेकान कि ना फेर लड़खड़इबऽ तूँ ?
अन्हेर राज बा आ सबका आँखि बा अन्हवट
कठिन बा चुप रहल, अब कबले सुगबुगइबऽ तूँ ?
(2)
हरेक बात में हुज्जत बाटे
इहाँ गलदोदई के कीमत बाटे।
मिल के करिया-पहाड़ ढाहि दियाव
अब भला कहाँ ऊ समनत बाटे।
आँख फोरतेे उहे बनिहें राजा
तबले चमचन के हुकूमत बाटे।
रोजे गदहन क होता जै-जैकार
धार उल्टा मुँहे बहत बाटे।
लंठ-लुच्चन के रंगदारी से
रोब के ठीकरा चलत बाटे।
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