बतकुच्चन – ३९

by | Dec 20, 2011 | 3 comments


कहल जाला कि तुलसीदास लिख गइल बानी कि “कूदे फाने तूड़े तान, वाके दुनिया राखे मान”. तुलसीदास का जमाना में लोकतंत्र त रहे ना बाकिर उनुका अन्दाजा रहे कि कलियुग में का होखे जा रहल बा आ आवे वाला दिन में दुनिया केकर बाति सुनी, केकर बाति मानी. लोकतंत्र के एही चलते कुछ लोग भीड़तंत्र कहेला आ ऊ बहुत बेजाँयो ना होला. लोक से भीड़ बनेला आ भीड़ लोक के बना भा बिगाड़ देला. पिछला दिने कुछ अइसने भइल जवना से हमरा मन में तीन गो शब्द छितरा गइल. रिरियाइल, छरियाइल आ जिदियाइल. सोचे लगनी कि एह तीनो भाव में बाति त एकही बा बाकिर बतकुच्चन करि के देखीं त कुछ अलगे भाव निकल आई. रिरियाइल, छरियाइल आ जिदियाइल कुछ माँगे घरी हो जाला. जब गिड़गिड़ा के माँगी त रिरियाइल, अंगरेजी वाला टैन्ट्रम पसारत भा नखरा पसारत कवनो चीज माँगी त छरियाइल आ पूरा जिद्द का साथ, पूरा ताकत से कुछ माँगी त जिदियाइल कहल जाला. गिड़गिड़ाइल आ रिरियाइल एक तरह के होइयो के अलग होला. गिड़गिड़ाहट में माँग कम सफाई बेसी होला जबकि रिरियाइल में सफाई ना दिहल जाव सीधे माँगल जाला. ठीक वइसहीं जइसे कि सरकार अपना सहयोगियन से रिरियात बिया कि छरियाइल बूढ़वा से बचावे खातिर साथ द लोग. बाकिर सहयोगी बाड़न कि सुनत नइखन. एह बीच जिदियाइल सभे बा. चाहे ऊ सरकार होखे, बुढ़ऊ के टीम होखे भा मौका के नजाकत देखत विपक्ष होखे.
अब आईं जिद्द पर. सोचल जाव कि कब कवनो माँग जिद्द बनि जाला. जब सामने वाला कवनो जद, कवनो प्राविजन, माने के तइयार ना होखे त ऊ जिद्दी कहल जाला. जिद्दी जद्द से बनल बा, जद्द माने बेसी, बरियार. जे अइसन जद्द होखे कि ऊ केहू के माने सुने के तइयार ना होखे त ऊ जिद्दी बनि जाला. सवाल उठत बा कि कब जिदियाइल के छरियाइल कहल जाव आ कब छरियाइल के जिदियाइल. ई फेर अलग अलग आदमी अपना अपना हिसाब से तय करी. हमार कवनो जिद्द नइखे कि हमरे बाति मानल जाव. बुढ़ऊ के कुछ लोग छरियाइल भले कह देव बाकिर बेसी लोग हद से हद इहे कही कि ऊ जिदियाइल बाड़न. ठीक ओही तरह जइसे अक्सरहाँ जुलूस प्रदर्शन में नारा सुने के मिलेला कि “हमारी माँगें पूरी हों, चाहे जो मजबूरी हो.” आ अइसनका नारा सबले बेसी तब सुने के मिलेला जब चुनाव सामने होखे. माँगे वाला जानेला कि मौका आ गइल बा जब रिरियइला के ना छरियइला के जरूरत बा. बूढ़उओ जानत बाड़न कि पाँच गो राज्यन के चुनाव सामने बा आ एह समय सरकारी पार्टी के पोंछिटा खोलल सबले आसान होला.

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3 Comments

  1. दिवाकर मणि

    बतकुच्चन में “रिरियाइल, छरियाइल आ जिदियाइल” के विश्लेषण पढ़ि के मजा आ गईल। राऊर ई लेख पढ़ि के अजीत वडनेरकर जी के “शब्दों के सफर” के इयाद आवे लागल। मजेदार उदाहरण के माध्यम से बहुत ही उत्तम व सारगर्भित जानकारी देबे वाला अपने के ई प्रयास स्तुत्य बा। पुनश्च धन्यवाद।
    – मणि.

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