– जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
रूंधल बिया सपनों अब
कसमसाहट बा
आहट बा
चाहे बुझात नइखे
या सुझात नइखे
का करीं ।
केहर जाईं
कइसे कहीं
केसे कहीं ई पीर
सहात नइखे
तिरियो अब लजात नइखे
का करीं ।
हया के हाय हाय
बेहया के ठाँय ठाँय
उघरल जाता सउसे देह
ई देखात नईखे
मनो मे समात नइखे
का करीं ।
संस्कारो अब
भुलाइल बा
बड़ छोट के समझ
सुनात नइखे
कहात नइखे
का करीं ।
छीछीर नदी नियन
उतिराइल बा
आजु शिक्षा के असर मे कुछों
गढ़ात नइखे
पढ़ात नइखे
का करीं ।
रूपिया के चक्कर मे
बउराइल बा
राह चलला के ढंग
सोहात नइखे
जोहात नइखे
का करीं ।
0 Comments