– डॉ.रमाशंकर श्रीवास्तव
बाबूजी के केतना हाली समझवले होखब कि रउआ हमरा के अफसर मत कहीं. बड़का तनखाह पवला से का भइल, हम त सरकारी दफ्तर के एगो कलर्को से गइल-गुजरल बानी. रउआ मन में अपना जमाना के इयाद सटल बा. अंगरेजन के समय रहे. ओह घरी जवना पढ़ल-लिखल के नोकरी लाग जाव त उ सांचो के अफसरे रहे. हम मास्टर डिग्री तक पढ़नी, फेन एम.बी.ए. कइनी. एम.बी.ए. करे के मन ना रहे बाकिर लोगवे ना मानल. बेर-बेर टोक देव – ए रमेश जी, तू जे बिना नौकरी-चाकरी के एने-ओने मारल-फिरत बाड़ त ई कइसन लागत बा. लइकांई में तहरा के कुल दीपक कहल जाव. बापे-महतारी के ना तू भर गाँव के सपना रहलऽ. तहरा तरक्की खातिर सभे मने मन इंतजार करे. तीन जगेह छोट-मोट नौकरी कइलऽ आ छोड देहलऽ. दोसरा के देख त तू मनेमन सिहाये लागऽ. बाप रे, अमुक त हमरा से कमे पढ़ले बाड़े बाकिर साठ हजार रूपिया तनखाह घींचत बाड़े. एतना पढ़लो पर हम अठारह हजार पावत बानी. दोसरा के बड़का तनखाह देख के ताहार मन बेचैन रहत रहे.
अब त जेकरे बारे में सुन उहे एम.बी.ए. करे में लागल बा. छोट डिग्री भइला से ताहार मन मुटठी भर के हो जाव.
तबो कुछ दिन ले भटके के पड़ल. लिखित परीक्षा भइल, इंटरव्यूओ भइल. हर बार बुझाव कि ताहार सेलेक्शन हो गइल. अप्वाइंटमेंट लेटर के इन्तजार में महीनों सरक जाव.
ढहत-ढिमलात आदमी जिनिगी में अनुभव बटोरेला. आपन पढ़ाई-डिग्री आ प्रयास के बाद मन एहू बात पर अटक जाव कि आदमी के जिनिगी में किस्मतो कवनो चीज ह. सब कुछ त किस्मते पर नइखे छोड़ल जा सकत मगर तबो किस्मतो के थोड़ा-बहुत भूमिका होला, चाहे उ एके परसेंट होखे. खैर आखिर में ताहार नौकरी लाग गइल. नौकरी के तनखाह सुन के घर भर के लोग खुश हो गइल. साठ हजार रूपया महवारी कम ना होला. पहिले त तहरा बुझाइल कि बाप रे एतना पइसा कइसे खर्चा होई. बाबूजी अपना जमाना से तुलना करीं. उहां का नौकरी में अढ़ाइए हजार पाके बम-बम रहनी. मगर हमार साठ हजार सुनके भक रह गइनी. वइसे उहां का मालूम रहे कि हिन्दुस्तान में ढेर एम.एन.सी. कम्पनी ढेर-ढेर तनखाह देके अपना टेकनिकल स्टाफ के खुश रखेले. खान-पान, परिवहन सब तरह के सुविधा देले.
मगर कम्पनी के भीतरी बइठला पर रमेश के मन में सचाई उजागर होखे लागल. कम्पनी के दफ्तर में एक सबेरे के गइल रात के नौ दस बजे लउटे के पड़े. हमार मन छटपटा के रह जाव. मगर ओह जंजाल से निकले के राह ना लउके. एगो दोस्त हँसते हमरा पर ताना मरले – मीठा-मीठा गप आ कड़ुआ-कड़ुआ थू. बोरा भर तनखाहो पइबऽ आ ऊपर से तू कम्पनी से मजा मारे के फुर्सतो चाहत बाड़? कम्पनी कम होशियार बिया? एही साठ हजार में तहरा के दूह के ध दी.
दोस्त के टिपनी हमरा अच्छा ना लागल बाकिर उनकर बात हमरा मन में बइठ गइल. हमार अपने शादी में मुशिकल से चार दिन के छुटटी मिलल. बाबूजी अस्पताल में बीमार रहनी त उहां के देखे हम ना जा सकनी. कम्पनी में ऑडिट चलत रहे. कम्पनी के देखीं कि अपना बाप के देखीं. बीमार महतारी हमरा के देखे खातिर आखिरी सांस तक हीकत रह गइली. साठ हजार के नौकरी अइसन जकड़ ले ले रहे कि मन के तनिको चैन ना रहे अपने बेटा के जन्मदिन में मेहमान लोग के चहुँपला के दू घंटा बाद हम डेरा पर पहुँचनी. रास्ता में गाड़ी खराब हो गइल. सब सुविधा मिलल मगर जिनगी के चैन गायब होत गइल. बेर-बेर नौकरी छोड़ देबे के विचार मन में उठे लागे. मगर नौकरी के बाद फेर कहाँ जइतीं. दू-चार जगह अप्लाइयो कइनी. कवनो ऑफर ना आइल. बाबूजी गुमशुम रहनी. एक बेर खिसिया के कहनी. इ कम्पनी छोड़ के कवनो दोसर नौकरी काहे नइख ज्वाइन क लेत. हम त उहो करे के तैयार रहनी मगर अमेरिका-इंग्लैंड जइसन बड़का देश जब मंदी के चपेट में रहले सन त ओकर असर अपनो देश पर त रहे. दोसरा जगह एतना तनखाह पर कवनो कम्पनी हमरा के रखे के तइयार ना रहे.
अब एने साल भर से बाबूजी कहल छोड देले बानी कि हमार बेटा अफसर बाड़े. हमरा अफसरी के असली चेहरा बाबूजियो के नीमन से मालूम हो चुकल बा. भावुकता में हम नौकरी छोड़िओ दीं त फेर सवाल उठी कि अब कवन कम्पनी हमरा के ओतने तनखाह दी. सभे एक दोसरा के मजबूरी से फायदा उठावे के चाहेला.
हमार गति साँप-छुछूंदर के हो गइल रहे. एही तनखाह के दम पर अपना गृहस्थी के जोड़े खातिर हम जगह-जगह से लोन ले चुकल रहनी. उ कर्जा कइसे चुकी. कर्जा के किश्त तनखाहे से भरात रहे.
बाबूजी एक दिन गाँव के बरामदा में चुपचाप बइठल रहनी. गाँवे के एगो साथी आके टोकले – ऐ मरदे, अब कवना बात के फिकिर में पड़ल बाड़ऽ? आज ताहार बेटा साठ-सत्तर हजार पावत बा, काल्ह लाख रूपिया पाई. तहरा अइसन किस्मत वाला के बा. बाबूजी मनेमन अपना किस्मत के तरजूई पर जोखत रहीं. हमरा बेटा के बड़के तनखाह वाला नौकरी त लागल. अच्छा खाना, पीना, पहिरल-ओढ़ल सब चलत बा. मगर बम्बई में रहे वाला रमेश अपना बाप महतारी से केतना दूर हो गइले. नीमन नौकरी सौत बन गइल. एह से त अच्छा रहित कि कमे पइसा के नौकरी मिलित आ घरे के निचिका रहते. समय से घर आना-जाना रहित आ समय समय पर घर-परिवार भाई-रिश्तेदारनो से सम्पर्क बनल रहित. एगो बड़के तनखाह तरह-तरह के जिम्मेदारी से एतना लाद देहलस कि सहजता से मिलल-जुलल, पर्व-त्योहार में शामिल भइल तक दुलुम हो गइल.
बाबूजी के मुँह से अब ना निकलेला कि हमार बेटा अफसर बाड़े. बेटा के अफसरी केतना महँगा पड़ेला, इ त अब सोचे-विचारे के विषय बा. ई सब कम्पनी देश के जवान लड़का-लड़की लोग के ऊर्जा-दोहन खातिर आइल बा. पन्द्रह बीस साल काम करा लेला के बाद ए ह लोग के छंटनी होखे लागी. पुरनका चाउर पथ बनेला अब एह मुहावरा पर भरोसा ना रहल. नौकरी के तनाव खा रहल बा. ना ठीक से जीए के बा ना हँसे बोले के. जिनिगी में खाली रूपये पइसे के महत्व नइखे. पइसा के साथ समाज में जीयला के सुखो चाहीं. एह बेकारी के जमाना में आखिर हमरा अइसन जवान लोग का करे आ का ना करे. हमार द्वन्द्व बढ़त गइल. आखिर एक दिन फोन पर बाबूजी से कहिए देहनी, अब हम नौकरी छोड़े वाला बानी. अपना गाँव-शहर के आसपास कौनो छोट-मोट नौकरी खोजल जाई. ओमे कम से कम चैन त मिली.
(हेलो भोजपुरी, जून 2014 अंक से)