छोड़ीं जनि कुदरत कबो, राखीं एकर ध्यान।
नाहीं तऽ बनि आपदा, ले ली राउर जान।।
बद्री आ केदार के, धाम भइल शमशान।
भगत लोग सब बहि गइल, चुप रहलन भगवान।।
खेले में आसान बा, राजनीति के खेल।
कथनी-करनी में कहीं, नइखे इचिको मेल।।
लोटा डगरत बा चलत, बिन पेनी के आज।
एही पर जनतंत्र के, बड़ुए बहुते नाज।।
बइठल चानी बा कटत, बरिसत बाटे माल।
नोकर हलुआ खात बा, मालिक बा बेहाल।।
माँ के नोंचत खात बा, भारत माँ के लाल।
रोवत बाड़न स्वर्ग में, लाल, बाल आ पाल।।
बहुमत ना चाहीं इहाँ, गठबंधन अहिबात।
लूटि खजाना देश के, आज विदेशे जात।।
जेड सुरक्षा लगल बा, मंत्री के चहँुओर।
जन-जन रोज पिटात बा, टूटल पोरे-पोर।।
का खाई, पहिरी भला, पावे पाँच हजार।
दे के सिच्छा शिक्षको पीटे रोज कपार।।
पद चपरासी के भलो, टेजरी हो या कोर्ट।
मुहर मराई में मिले, दस-दस के सौ नोट।।
मँहगी मुँह बवले इहाँ, सुरसा लेखा खाय।
सभकर इज्जत, खेत, घर, सँउसे गइल समाय।।
चौराहा पर बा परल, प्रजातंत्र के लास।
गिद्ध नोंचि के खात बा, केहू नइखे पास।।
(भोजपुरी दिशा बोध के पत्रिका “पाती” के दिसंबर १३ अंक से.)
पूरा पत्रिका डाउनलोड क के पढ़ीं.
0 Comments