बिहार के सिनेप्रेमियों को मूर्ख बनाने से धुर्त निर्माता और निर्देशक बाज नहीं आ रहे हैं. जिस वजह से दर्शकों को अपनी मनचाही फिल्म देखने में परेशानियों का सामना करना पड़ता है. लेकिन इसकी सुध तक निर्माता-निर्देशक नहीं लेते क्योंकि उनको अपने फिल्म के प्रचार-प्रसार में सिनेमाघरों की संख्या अधिक जो दिखानी रहती है. एक ही सिनेमाघर का नाम कई फिल्मों के प्रचार-प्रसार में जोड़ा जाता है. जिससे दर्शक मूर्ख बन जाते हैं.
हाल ही का वाक्या ले लीजिए. पंडित जी बताई ना बियाह कब होई-2 और पटना से पाकिस्तान इन दोनों फिल्मों के प्रचार-प्रसार में जिन सिनेमाघरों का नाम है वह है – संगीत (मोतिहारी), क्रेज (दरभंगा), रूपमहल (चकिया), अनुपम (ढाका). जबकि पंडित जी बताई ना बियाह कब होई-2 और ई कईसन बिदाई के प्रचार में – शीला (डुमरांव), जवाहर (नाथनगर) का नाम है. जबकि पटना से पाकिस्तान और जान तेरे नाम के प्रचार प्रसार में अनुपम (अरेराज), दीपम (घोड़ासहन) का नाम अंकित किया गया है.
अब ऐसे में कैसे कहा जाए कि भोजपुरी फिल्म के निर्माता व वितरक अपनी फिल्मों को सही प्रचार प्रसार कर रहे हैं. ऐसे में सिर्फ दर्शकों को ही मुँहकी खानी पड़ती है जब वह अपनी पसंद की फिल्म देखने सिनेमाघर तक तो जाते हैं लेकिन वहां पर पाते हैं कि कोई दूसरी फिल्म प्रदर्शित हो रही है.
यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि निर्माता व वितरक अपनी मिली भगत से बिहार के सिनेमाप्रमियों को मूर्ख बनाते हैं. उपर दिये गये चित्र में ( लाल घेरे में) आप साफ तौर पर इस बात को देख सकते हैं. एक सवाल जो जेहन में उठ रहा है वह यह है कि आखिर क्यों ऐसा कर निर्माता व वितरक बिहार के सिनेप्रेमियों को मूर्ख बनाकर उन्हें परेशानी में डालते हैं? आखिर क्यों ये फेक पब्लिसिटी से बाज नहीं आते हैं?
(संकेत जे॰ सिंह)
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