बतकुच्चन – १०४

by | Apr 3, 2013 | 1 comment


“डोलिए में अइनीं, डोलिए में गइनीं, डोलिए में रहि गइल पेट. ए सासु जी तोहरे किरिया सईंया से नाहीं भेंट.”

एक जमाना रहुवे छायावादी कवियन के. बात के घुमा के अइसे कहीहें कि कुछ लोग बूझी कुछ ना. कविता के खजुराहो जस होला छायावादी कविता. जे उपरे उपर अझूराइल से भितरी पइठ ना पाई आ जे समुझ गइल ओकरा बाहर रुके के कवनो कारण ना रहि जाई. याद आवत बा उहो गीत, – लागल चुनरी में दाग छोड़ाईं कइसे, घर जाईं कइसे. आ कबीर के कहल कि, – दास कबीर जतन से ओढ़ी, जस के तस धरि दी्न्हि चदरिया. एह कवितन में भक्ति रस वाली बात प्रेम रस में पगा के कहल जात रहुवे बा घुमा फिरा के. हमरो शुरू करे के मन रहे चईता के एगो लाइन से कि, – आ हो सुरसति मतवा जोड़ीले दुनु हथवा, हो रामा, कंठे सुरवा / कंठे सुरवा होखऽ ना सहईया, हो रामा, कंठे सुरवा. काहे कि आजु जब रउरा सभे पढ़त बानी त चईत के महीना शुरू हो गइल बा. आ भर महीना फगुआ गीतन के सीजन का बाद अब चईता के सीजन आ चलल बा. अलग बाति बा कि आधुनिकता के दउड़ में परंपरा भुलात चल गइल बा. एही भुलइला बिसरइला से निकाले खातिर माता सरस्वती के वंदना कइल जाला.

सुमिरन खाली यादे कइल ना होखे, साथे जुड़ल होला भक्ति भाव, प्रेम भाव, आदर भाव. अब बतकुच्चन में हम ना त गाइलें ना बजाइले. बस कोशिश रहेला कि भुलाइल बिसराइल जात भोजपुरी शब्दन के नया तरीका से याद कर के नवहियन के ओह शब्दन के इस्तेमाल करे के बढ़ावा दिहल जाव. कबो कबो समय का बहाव में बतकुच्चन बहियो जाला आ मुद्दा से फरका हो जाला. आजु अपना सोर से जुड़ल रहे के कोशिश रही. कहल जाला कि राग रसोईया पागड़ी कबो कबो बन जाव. थोक भाव में साहित्य ना लिखाव. कई दिन ले दिमाग में बात उमड़ेले घुमड़ेले तब जा के कुछ लिखा पाला, रचा पाला. ठीक ओही तरह जइसे कि कोख में नौ महीना पलइला का बादे ऊ होला जवना से कवनो एहवाति अलवाँति बन जाले. हालांकि अलवाँति बने ला एहवाति होखल जरूरी ना होखे आ कुछ लोग आन डिमांडो लिखत रहेला आ बढ़िया से लिख लेला. बाकिर कहाँ राजा भोज कहाँ गंगूआ तेली! ओह लोग से एह बतबनवा के कवन तुलना. से हम लवटत बानी एहवाति आ अलवाँति पर.

एहवाति बिआहले ना सधवा औरत के कहल जाला. बिआहल त विधवो औरत होले. अब एह धवा के राज हमरा नइखे मालूम कि कइसे एह धवा का साथे सधवा बनि जाला आ बे धवा के विधवा. कुछ भाषा विज्ञानी बता सकीहें त बहुते खुशी होखी. एहवाति सधवा औरत के कहल जाला आ एहवात सुहाग के. आ अलवाँति नया नया महतारी बनल औरत के कहल जाला. जेकरा गोदी में लइकी भा लइका खेलत होखे. कहे वाला कहि जइहें कि त अलवांति बने ला एहवाति होखल कहाँ जरूरी बा. पुरनके जमाना से चलल आवत बा. कुंती कहाँ एहवाति रहली जब कर्ण से अलवाँति भइल रही. बात मानत बानी बाकिर तब नारी सशक्तिकरण के जमाना ना रहुवे से कुंती के ऊ बात लुकावे छिपावे पड़ल रहुवे. बाकिर कब ले? आखिर में त बात सभका सोझा अइबे कइल. खैर खून खाँसी खुशी बैर प्रीत मधुपान . रहिमन दाबे ना दबे जाने सकल जहान.

अब चलत चलत सोचऽतानी कि ओह पतोहियो के बात कहले जाईं कि कइसे सईंया से भेंट भइला बिना ओकर पेट रहि गइल रहे. एहमें बतावल गइल बा कि आदमी महतारी का पेट का डोली से आवेला, मरला का बाद टिकठी का डोली पर जाला बाकिर कवि के मन में भगवान के भक्ति भाव जनम का पहिलहीं से उपज गइल जबकि ओकरा भगवान से कबो भेंट ना भइल.

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1 Comment

  1. amritanshuom

    संपादक जी राउर बतकुच्चन में बहुत जानकारी वाला बात राहिला .आ पढ़े में भी बहुत मजा आवेला .राउर बतकुच्चन के एगो मोटा किताब भी छप सकेला .
    बहुत -बहुत धन्यवाद !

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