बदलत समय में हमनी का संग, देश-समाज खातिर सोच-विचार आ ‘मत’ के जबर्दस्त द्वन्द चल रहल बा. देसवे ना, बलुक दुनिया में ई द्वन्द आपुसी खेमाबाजी आ आक्रामकता के हद तूरि रहल बा. भौतिक विकास, समृद्धि आ वर्चस्व एक ओर बा त दुसरा तरफ सोच-विचारधारा आ संस्कृति के संघर्ष.

हमनी किहाँ सैकड़न बरिस के गुर्चियाइल गुलामी वाली मानसिकता, आजादी का सात दशक बादो रहि-रहि उफनति बा, बाकिर एसे छुटकारा खातिर जनचेतना नवजागरन का स्थिति में बा. जातिवाद, खानदानवाद, भाई-भतीजावाद आ एही में सउनाइल नकली प्रगतिशीलता आ भरभावे वाला समाजवाद आदि के मुखौटा उतर चलल बा, बाकिर एह वादी लोगन का पुर्वाग्रह आ अहंकार में कमी नइखे आइल. जनजागरन के एसे बड़ सबूत दोसर का होई कि हर क्षेत्र में अनधिकार दखल राखे वाली कथित बुद्विजीवी-बपौती, कब्जा, अतिक्रमण आ मठाघीशी के गहिर नेवं हिले लागलि बा. देश के इतिहास-परम्परा, आस्था आ संस्कृति से खेलवाड़ करे वाला कथित प्रोग्रेसिव सेकुलर राजनीतिज्ञ, बुद्विजीवी लोग सत्ता, पावर आ लाभ के सोर्श’ छिना गइला का क्रोध आ इरिखा में बीखि ढकचत, गोलियाए सुरु क देले बाड़ें. जनचेतना भारत का आत्मा के जगा चुकलि बिया, अतने ना अब ऊ खुल के विघटनकारी आसुरी शक्तियन आ भेद-भाव वाली नकारात्मक राजनीति का खिलाफ लामबन्द हो रहल बिया. अपना मूल आ मूलधारा से जुड़ला के ललक आ ओकरा दिसाई सचेत भइला के लच्छन साफ लउक रहल बा.

आज से 43 बरिस पछिले अपना मातृभाषा भोजपुरी के साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिका ‘‘पाती’’ निकाले का पाछा हमार मंशा इहे रहे कि सही दिशा का साथ लोगन के एकर वर्तमान बोधो रहे. लोक से जनमल-जुड़ल एह भाषा के मान-सम्मान आ प्रतिष्ठा बढ़े. हम ओह लायक त एकदमे ना रहनी कि कवनो पत्रिका निकाल सकीं. हिन्दी में लिखत-पढ़त रहनी आ बेरोजगारे रहनी. मेहनताना के रूप में हिन्दी पत्र-पत्रिकन से मिले वाली मामूली सहायता से निबुकावल मुश्किल रहे. ओह दारुन-स्थिति में पत्रिका निकाले के संकल्प आ ओके सौ अंक तक ले जाए के जिद आजु पूरा भइल तऽ आँखि लोरा गइलि बिया. एह कठिन मंजिल तक पहुँचावे वाला सब नेही-छोही भोजपुरिया लोगन के आभार का दरसाई? निहोरा जरूर करब कि रउआ सब एह जरत मशाल के संवाहक बनीं।

– डॉ अशोक द्विवेदी,

(पाती के संपादक-प्रकाशक)

पाती पत्रिका के सउँवाँ अंक डाउनलोड क के पूरा पढ़ीं.http://anjoria.com/paati/Paati_100.pdf

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By Editor

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