– डा॰ सुभाष राय

ई त सभे जानेला कि
सूरुज उग्गी त सबेर होई
इहो मालूम बा सबके कि
चान राति क उगेला
बहुते नीक लागेला
फूल फुलाला त महकेला

बाकिर ई केहू के ना पता
कि महंगाई काहें बढ़ेले
खून-पसीना बहा के भी
किसान काहें सबकर मुंह
तकले के मजबूर बानऽ
काहे दूसरन क जान ले के
लुटेरन क फउज मस्त बा
सुघर-सुघर बचियन के
मइया काहें जनमते फेंकि आवेलीं
बगइचा में चुपचाप
काहें भुखल रहिं जालन स
लइका गरीब लोगन क
काहें मजूर बाप क बेटवा
मजूरे बने के शरापल बा

अदिमी के आंखि रहते काहें
सगरो जग हरियर लउकेला
काहें ई अंधेरनगरी भइल बा
काहें ई चौपट राजा गद्दी प
खूब ठाट से मुस्कियात बा
जहाजि उड़त बा, लाल बत्ती
दौरति बा चउतरफा दिन-रात
कवनो काम रुकत ना बा
तेल क दाम बढ़त बा
दाल-चाउर, रोटी घटति बा
उनक प्रवचन चलत बा
सब कुसल बा, नीक बा
जनता के कवनो दुख ना बा
रामराज अवले चाहत बा

केहू बा करेजा वाला
बीर-बांकुरा, जे रोके इनके
जे चढ़ावे इनके मुंह प जाबी
जे इनके मंच से घसीटि ले
जे इनके मुंह प
इनके झूठ जोर से दै मारे
हां, बा का केहू…?


डा. सुभाष राय के दूसर कविता


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3 thoughts on “अंधेर नगरी, चौपट राजा”
  1. सादर नमस्कार….एकदम सामयिक अउर यथार्थ। सादर।।

    हम बस दु पंक्ति कहबि अपनी ओर से….

    आज जब हम सभ्य हो गए हैं,
    देखते नहीं,
    दूसरे की रोटी,
    छिनकर खा रहे हैं,
    और अपनों से कहते हैं,
    छिन लो,दूसरों की रोटी,
    न देने पर,
    नोच लो बोटी-बोटी,
    क्योंकि हम सभ्य हो गए हैं,
    पिल्ले हो गए हैं.
    बहुत पहले घर का मालिक,
    सबको खिलाकर,
    जो बचता रुखा-सूखा,
    उसी को खाता,
    भरपेत ठंडा पानी पीता,
    आज जब हमारी सभ्यता,
    आसमान छू रही है,
    घर का क्या ?
    देश का मालिक,
    हींकभर खाता,
    भंडार सजाता,
    चैन से सोता,
    बेंच देता,
    देशवासियों का काटकर पेट,
    क्योंकि हम सभ्य हो गए हैं.

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