– डा. अशोक द्विवेदी
छोट घर-बार में हमहन क, अब समाव कहाँ
नेह ऊ बा कहाँ अपनन में, ऊ लगाव कहाँ
जीउ टेघरे लगे गैरन के लोर चुवला पर
अब भला गाँव के लैनू नियर सुभाव कहाँ
बा खनक दाम के, अइँठन बा कुछ कमइला के
यार पहिले नियर उ भाव आ अभाव कहाँ
अपना छाँहाँ में बसा लेव जे दुखियारन के
अबका छुदुरन में भला दिल के ऊ दरियाव कहाँ
उ धधाइल, धइल आ जोग-छेम पूछ लिहल
हो गइल कहनी, सुने वालन में उ चाव कहाँ !
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