bhojpanch-march13एह अंक में भोजपुरी के संवैधानिक मान्यता का गंभीर मुद्दा पर पत्रिका संपादक कुलदीप कुमार के संपादकीय में राजनेता लोग के चेहरा के मुखौटा उतारे के कोशिश भइल बा भोजपुरियन का सभा में आ के झूठ आश्वासन दिहल आ निकलते भुला गइला के शिकायत एकदमे सही बा.

प्रभाकर पांडे के संस्मरण जइसन लेख “बहे ले फगनही फगुनवा में, हुक उठेला हमरी करेजवा में” गाँवन में आजु काल्हु के फगुआ के माहौल जियतार करत बा. त फगुआ के गीतन के अश्लीलता आ फूहड़पन का खिलाफ बिहार भोजपुरी अकादमी के अभियान के चरचा करत आकाश दीप के हिंदी लेख बतावत बा कि अब एह तरह के फूहड़ गीत का खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई के दौर शुरू हो जाई. एक तरह के अति से दोसरा तरफ के अति के पैरवीकार नइखन जानत कि खतरा कतना बा एह दूधारी तलवार के. बाघ के मुँहे खून लगला के देरी होला ओकरा आदमखोर बने में देर ना लागे. बढ़िया बा कि ई लोग अपना गाँवे ना जाव आ पटना दिल्ली में रहि के भोजपुरी का खिलाफ हवा बनावत रहेला. लागल रहीं भाई सभे जब ले फगुआ में खाली देवी गीते ना गवाए लागे. ई लोग त फगुआ के अबीरो या त गोड़ पर डाली ना त अंगुरी से छुआई भर. माथ पर टीका लागे त लागे गाल ना छूआए चाहीं.

पत्रिका के प्रकाशक समूह के मुखिया डा॰ संजय सिन्हा के जनमदिन पर प्रभाकर पांडेय के लिखल स्तुति वंदना बहुते नीक लागल. भोजपुरी के कर्णधारन के अइसन वंदना से उत्साहित करत रहला के जरूरतो बा.

“भोजपुरिया माटी में होली का रंग” मथैला वाला केशव पांडे के हिंदी लेख में होलीगीतन के श्लील रूप के बढ़िया चर्चा बा. बाकिर लेख एकांगी लागल. एहमें पिया परदेसिया, देवर भउजाई, भर फागुन बूढ़ के देवर लागे वगैरह के कवनो जिक्र नइखे. होली गीतन के रसिकता के हिंदी के पैमाना पर ना नापल जा सके ओकरा खातिर अपना भोजपुरिया होखे के गौरव चाहीं. निमन बाउर जइसन बा सभ हमार बा के भाव चाहीं.

रंगमंच के पन्ना पर दयानंद पांडेय जी के संस्मरण “बलेसरा काहे बिकाला” आजुओ ओतने प्रासंगिक बा. एह बारे में उनकर लिखल उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” भोजपुरी गीत संगीत के फुहड़पन पर छाती कूटे वाला हर आदमी के पढ़े के चाहीं. मिले त मारीं ना त बाल ब्रह्मचारी वाला अंदाज में शहीद होखेवालन के त जरुरे.

साहित्य का पन्ना पर हिंदी आ भोजपुरी के साहित्यकार एंथोनी दीपक का बारे में संतोष कुमार लेख उनकर जीवन वृत परोसले बा. बाकिर एह लेख में उनकर भोजपुरी गीत “उमड़ घुमड़ घन गिरल बदरिया, सनकल सोन मछरिया रे” का अलावे अउरी कवनो खास चरचा ना मिलल.

भोजपुरी माटी का पन्ना पर डा॰ गोरख प्रसाद मस्ताना के कविता “सनक” बढ़िया लागल.

सोलह बरिस हवे जादू आ टोना
तन होला चानी चानी, मन होला सोना.
हियवा के हलचल नजरिये बता दी
नजरिया के छलबल पुतरिये बता दी.

‍‍‍‍……

बड़ा उत्पाती ह ई कांची उमिरिया
उमिरिया के उमकल चुनरिये बता दी.

……

माघ में ना केहू काहे रहेला अकेले
जड़वा के कनकल गुदरिये बता दी.

कहानी का पन्ना पर रवि गिरी के लिखल “अइसन कब होई” के अगिला कड़ी बा. त फिलिम सिलिम के पन्ना पर अमिता सिन्हा के लेख “अपनी ही भाषा और संस्कृति के खिलाफ ये कैसा…?” बहुते जोरदार चोट कइले बा भोजपुरी के धंधेबाजन पर. खास कर के भोजपुरी सिनेमा से जुड़ल लोग के “दोगला” चरित्र पर. अमिता सिन्हा के लेख से हम सौ फीसदी सहमत बानी काहे कि एहमें भोजपुरी के चिंता झलकत बा, आपन हवा बनावे के भाव ना. लिखत रहीं अमिता जी अइसहीं.

एह सब का अलावहू एह पत्रिका में बहुते कुछ सामग्री हिंदी में बा जवना के हम सरसरी निगाह से देख त लिहनी बाकिर ओकरा पर कवनो टिप्पणी करे के जरूरत ना लागल. पूरा पत्रिका रउरा भोजपुरी पंचायत के वेबसाइट से डाउनलोड कर सकीलें.

– ओमप्रकाश

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3 thoughts on “भोजपुरी पंचायत पत्रिका के मार्च २०१३ अंक”
  1. संपादक जी,
    सादर प्रणाम!
    ई बात सही बा कि लेख एकांगी हो गइल बा।
    दीया देखावे खातिर संपादक जी के प्रति आभार आ धन्यवाद!

  2. संपादकजी,सादर नमस्कार।।
    बहुते सुन्नर, संक्षिप्त अउर यथार्थ विवेचना।
    रउरी ए बात से हम पूरा तरे सहमत बानी (“भोजपुरिया माटी में होली का रंग” मथैला वाला केशव पांडे के हिंदी लेख में होलीगीतन के श्लील रूप के बढ़िया चर्चा बा. बाकिर लेख एकांगी लागल. एहमें पिया परदेसिया, देवर भउजाई, भर फागुन बूढ़ के देवर लागे वगैरह के कवनो जिक्र नइखे. होली गीतन के रसिकता के हिंदी के पैमाना पर ना नापल जा सके ओकरा खातिर अपना भोजपुरिया होखे के गौरव चाहीं. निमन बाउर जइसन बा सभ हमार बा के भाव चाहीं.) की जब कवनो समाज आदि से संबंधित बातन पर कुछ कहल चाहें लिखल जाला त ओ में दुनु पक्ष उजागर होखें के चाहीं ना त लेख आदि एक्के पहलू पर केंद्रत होके रहि जाला। भोजपुरी आपन ह…अउर फगुआ में बोजपुरिया संस्कृति झलकेगा..पर हमनी जान अगर फगुआ में खाली अबीर-गुलाल चढ़ा के गोर लागि लेहल जाव त इ कइसन फगुआ…अरे जवले इ गीत ना गावल जाव…फागुनभर बुढ़वा देवर लागे…बहे फगुनहिया ले भउजी…..अरे हम त कहतानी की अगर फहुआ में केहू एहो गावता….पंडित बाबा खोलS..पतरवा…..अब आगे ना ..इ हम फगुआ की दिनहीं गाइबि त गलत नइखे…पर हाँ हम इ जरूर कहबि की हर चीज के सीमा होला…अउर जहाँ तक भोजपुरी गीतन, फिल्मन में अश्लीलता के सवाल बा उ ए से जायज नइखे की इ लोग बहुत अधिके परोसि देता लोग..एकर सीमा होखे के चाहीं…अगर गारी केहू बिआहे में गावे त ओकर अलगहीं महत्व होला..अगर समधी की ऊपर समधीन..दही फेंकतारी चाहें गाले में लगावतारी त इ प्रेम दरसावता।।
    हम भोजपुरी में फूहड़ता पर पर एतने कहबि की जब राधा-कृष्ण की प्रमे के चरचा होला त ओमें आत्मिक आनंद, अनुभूति मिलेला अउर ओकर केतना चर्चा कइल जाव त ओसे काम वासना ना बढ़ेला त भोजपुरिया गानन आदि खातिर भी एहे बात बा..पर पारंपरिक, लोक गीतन खातिर…आज के जवन एल्बम आदि निकलाने सन ओ भोजपुरिया संस्कृति के गलत फायदा उठा के एइसन गाना बनावताने सन जवन प्रेम के पराकाष्ठा ना काम के पराकाष्ठा के दरसावता..ए से ए गानन के विरोध होखे के चाहीं..अगर इ मर्यादा में बा…त एकर सोवागत बा…आभार।। त पहिले प्रेम (राधा-कृष्ण) अउर प्यार (काम के बढ़ावे वाला) में फर्क समझल जरूरी बा….जय माई-भासा।।

कुछ त कहीं......

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