– अल्पना मिश्र
(1) प्रेम में डूबल औरत
प्रेम में डूबल औरत
एक-एक पल-छिन
सहेजत-सम्हारत रहेले।
‘कइसे उठाईं ई ‘छन’
कहाँ धरीं जतन से…’
इहे सोच-सोच के
कई बरिस ले मुस्कियात रहे ऊ
मने-मन कि
अइसन होई ऊ …ओइसन होई कइसन होई…
तऽ ऊहे चलि आइल
एकदिन दबे-पाँव।
प्रेम में पगल औरत
इहो सोचत रहे बरिसन ले
कि अचकले जागे त
ओइसहीं मिले ओकर धइल
तकिया का नीचे चाभी
डायरी…पासबुक
कहाँ समझि पवलस ऊ ओघरी
कि ओही एक दिन का मोह में
बिला जाई ओकर
बरिसन से सइँचल सारतत्व…
घर के चाभी…
डायरी के लिखल गोपन
आ पासबुक के सुरक्षा
प्रेम में पगल औरत
जागल बिया कबसे
झाड़ू-पोछा, चूल्हा-चउका
बरतन खनखनावत
लइकन का पाछा भागत
कपड़ा झारत, सइहारत
फेर उहे अनन्त इन्तजार…
ओही एक छन के
पकड़े का कोसिस में निढाल
कमर में लटकल बा…
चाभी के खोल
कहीं बहरा निकल गइला के
तड़प लेले, दुआरी ले जाके
लवटि रहल बिया
ऊ प्रेम में डूबल औरत।
सुनँऽ सन तब नऽ
ई प्रेम में डूबल औरत कि
अगर इहे प्रेम हऽ
त, नीक रहित ऊ बलुक
दूर रहि के एह प्रेम से।
(2) हम
समय बहुत कम रहे
भारियो रहे ऊ हमरा से
ओइसे अपना काम का बोझा से
हमहूँ कम भारी ना रहनी
कतने गठरियन का बोझ से
दबाइल रहे हमार पोर-पोर।
शोक, मोह, चिन्ता आ खुसी से
बनल ईश्वर, एह कूल्हि से होके
बेखबर, बइठल रहे
हमरा पाछा – स्कूटी पर।
पता ना कवना शोक में डूबल
कवना मोह में हिम्मत बान्हत
कवना चिन्ता में काँपत
पता ना कवना खुसी खातिर
बिकल हम
हाथन में मन भर अनाज लदले
भीड़ का बीच
स्कूटी चलावत रहनी।
एसोसियेट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
(भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका ‘पाती के 78 वां अंक’ से साभार)